बुढ़वा मंगल हर साल भाद्रपद मास के अंतिम मंगलवार को मनाया जाता है। इस दिन हनुमानजी के वृद्ध स्वरूप की पूजा की जाती है, इसलिए इसे बुढ़वा मंगल कहा जाता है। रामायण और महाभारत काल से इस दिन को बहुत ही खास माना जाता है। इस दिन भगवान हनुमान जी की पूजा करना शुभ होता है। इस दिन बजरंगबाण और हनुमान चालीसा का पाठ करना चाहिए। इस दिन बजरंग बली को सिंदूर और चोला भी चढ़ाया जाता है, हनुमानजी के मंदिर में चोला चढ़ाने से सारी अधूरी इच्छाएं पूर्ण होती है और पुण्य की प्राप्ति होती है ।
बुढ़वा मंगल का इतिहास
पौराणिक कथा के अनुसार, महाभारत काल और रामायण काल से बुढ़वा मंगल मनाने का इतिहास जुड़ा है। ऐसा माना जाता है कि महाभारत काल में हजारों हाथियों के समान बल वाले भीम को अपनी शक्तियों पर बहुत घमंड था। उनको सबक सिखाने और घमंड को तोड़ने के लिए रूद्र अवतार भगवान हनुमान ने एक बूढ़े वानर का रूप धरा था। एक बार भीम कहीं जा रहे थे तो वानर रूपी हनुमान जी बीच रास्ते पर पूंछ बिछाए लेट गए।
जैसे ही कुंति पुत्र भीम उस रास्ते से निकले उन्हें रास्ते पर वानर लेटा मिला, भीम ने अहम में आकर वानर को तिरस्कार की भावना से कहा अपनी पूंछ हटाओ। उन्हें बूढ़ा वानर कहकर उनका अपमान किया और लांघते हुए जाने लगे लेकिन वानर के रूप में अंजनी पुत्र हनुमान जी बोले तुम 10000 हाथियों का बल रखते हो, तुम खुद ही इस पूंछ को हटा लो।
क्रोध में आकर भीम आगे बढ़े और पूंछ हटाने की कोशिश करने लगे पर वो उसे हिला तक नहीं पाए। इसके बाद हनुमान जी अपने असली रूप में आए और भीम को सबक सिखाकर उनके घमंड को चूर चूर किया। हनुमान जी ने कहा कि किसी को भी कम नहीं समझना चाहिए और ना ही किसी पशु, पक्षी, पीड़ित या बूढ़े का उपहास ही करना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि जब ये घटना हुई तो भाद्रपद का आखिरी मंगल था और तभी से ये दिन मनाया जाने लगा।
धार्मिक मान्यता के अनुसार बुढ़वा मंगल का संबंध रामायण काल से भी है। मान्यता है कि भाद्रपद के आखिरी मंगलवार को रावण ने हनुमान जी की पूंछ में आग लगाई थी। जिसके बाद हनुमान जी ने अपना विकराल रूप धारण किया और रावण की लंका को जलाया था। इस दिन सिर्फ लंका ही नहीं जली थी बल्कि रावण के घमंड के चूर-चूर होने की शुरुआत हो गई थी।