विजयादशमी का पर्व हर साल अश्विन माह के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मनाया जाता है। विजयादशमी असत्य, अंहकार,अत्याचार और बुराई पर सत्य, धर्म और अच्छाई की विजय का प्रतीक है। दशहरा से पहले नवरात्रि में नौ दिनों तक मां दुर्गा के 9 रूपों की पूजा होती है। लेकिन बिना योगिनियों की पूजा के देवी की पूजा संपन्न नहीं मानी जाती है। इसलिए विजया नक्षत्र में देवी की योगिनी जया और विजया आश्विन शुक्ल दशमी तिथि को होती है।
ये दोनों योगनियां को कोई पराजित नहीं कर सकता। यही कारण है कि ये अपराजिता देवी के रूप में भी इनकी पूजा होती है। दशमी तिथि को विजया देवी की पूजा होने की वजह से दशहरा को विजया दशमी कहा जाता है।विजय दशमी के दिन ही शमी के पेड़ को लगाया जाता है।
जैसा की नाम में ही दशमी तिथि में शमी जुड़ा है तो इसका धार्मिक महत्व खुद बढ जाता है। इसी दिन से मांगलिक कर्मों की शुरूआत की जाती है। इस दिन फसलों के साथ शस्त्रों की पूजा का भी विधान है।
विजयादशमी पर शमी के पेड़ से जुड़ी कथा
पौराणिक कथाओं के अनुसार महाभारत के समय पांडवों ने अपने अस्त्र और शस्त्र शमी के वृक्ष पर छिपाए थे। जिसके बाद उन्होंने महाभारत के युद्ध में कौरवों पर विजय प्राप्त की थी। एक ऐसा भी धार्मिक मान्यता है कि मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम ने रावण से युद्ध करने के पहले मां दुर्गा और शमी वृक्ष की पूजा की थी। इसके परिणाम स्वरूप लंका पर उन्हें विजय प्राप्त हुई, तब से दशहरा पर शमी वृक्ष की उपासना शुरू हो गई। ऐसे में दशहरे के दिन प्रदोषकाल के दौरान शमी के पेड़ की पूजा करना बहुत शुभ माना जाता है।
विजयादशमी और शमी के वृक्ष की कथा का वर्णन शास्त्रों में मिलता है। एक कथा के अनुसार, महर्षि वर्तन्तु के शिष्य कौत्स थे। महर्षि वर्तन्तु ने कौत्स से शिक्षा पूरी होने के बाद गुरु दक्षिणा के रूप में 14 करोड़ स्वर्ण मुद्राएं मांगी थीं। गुरु दक्षिणा देने के लिए कौत्स महाराज रघु के पास जाकर उनसे स्वर्ण मुद्राएं मांगते हैं। लेकिन राजा का खजाना खाली होने के कारण राजा ने उनसे तीन दिन का समय मांगा। राजा स्वर्ण मुद्राओं के लिए कई उपाय ढूंढने लगे। उन्होंने कुबेर से भी सहायता मांगी लेकिन उन्होंने भी मना कर दिया।
राजा रघु ने तब स्वर्ग लोक पर आक्रमण करने का विचार किया। राजा के इस विचार से देवराज इंद्र घबरा गए और कुबेर से राजा स्वर्ण मुद्राएं देने के लिए कहा। इंद्र के आदेश पर कुबेर ने राजा के यहां मौजूद शमी वृक्ष के पत्तों को स्वर्ण में बदल दिया। माना जाता है कि जिस तिथि को शमी वृक्ष से स्वर्ण की मुद्राएं गिरने लगी थीं, उस दिन विजयादशमी का पर्व था। इस घटना के बाद दशहरे के दिन शमी वृक्ष की पूजा की जाने लगी।
शमी के पौधे की पूजामान्यता है कि जिस शमी के पौधे की पूजा भगवान राम ने स्वयं की थी, उसे दशहरे के दिन पूजने पर व्यक्ति की कुंडली में स्थित शनिदोष दूर होता है। ज्योतिष में शमी की जड़ को कीमती रत्न नीलम के समान फलदायी माना गया है। ऐसे में इसे धारण करने पर भी व्यक्ति के जीवन से शनि से संबंधित बाधाएं दूर होती हैं और उसे सुख -सौभाग्य की प्राप्ति होती है।
अपराजिता के पौधे की पूजा
दशहरे के दिन शमी की तरह अपराजिता के पौधे की पूजा काे अत्यंत ही शुभ और कल्याणकारी माना गया है। आज के दिन अपराजिता पौधे और अपराजिता देवी की विशेष रूप से पूजा करनी चाहिए। मान्यता है कि दशहरे के दिन अपराजिता के पौधे को घर में लगाने और पूजा करने से जीवन में आ रही सभी तरह की बाधाएं दूर होती हैं और पूरे साल घर में सुख-शांति और समृद्धि बनी रहती है। मान्यता है कि जिस घर में अपराजिता का पौधा होता है, उस घर में हमेशा धन की देवी मां लक्ष्मी का वास बना रहता है।
दशहरे के दिन नीलकंठ पक्षी को देखना शुभ होता है। धार्मिक मान्यता है कि इस दिन यह पक्षी दिखे तो आने दिन खुशहाल होते है।