कैलाश मंदिर, एलोरा-Kailash Temple in Ellora
हिंदू धर्म में भगवान और मंदिरों का बड़ा महत्व है। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि भगवान ही इस सृष्टि का संचालन करते हैं। उनकी ही इच्छा से धरती पर सबकुछ होता है। वैसे तो हिंदू धर्म की मान्यता है कि भगवान हर जगह मौजूद हैं, लेकिन भारत की संस्कृति ऐसी है कि यहां जगह-जगह आपको अलग-अलग देवताओं के मंदिर मिल जाएंगे।
ऐसा सदियों से चला आ रहा है कि लोग अपनी श्रद्धा से मंदिरों का निर्माण करवाते हैं। ऐसा ही एक मंदिर हैं, जो किसी अजूबे से कम नहीं है। कहते हैं कि इस मंदिर को बनने में 100 साल से भी ज्यादा का समय लगा था और इसके निर्माण में करीब 7000 मजदूरों लगाए गए थे।
यह मंदिर महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में स्थित एलोरा की गुफाओं में है, इन गुफाओं को सह्याद्री पहाड़ियों की खड़ी बसाल्ट चट्टानों से उकेरा गया था। गुफा संख्या 16 जिसे एलोरा के कैलाश मंदिर के नाम से जाना जाता है।
२७६ फीट लम्बा , १५४ फीट चौड़ा इस मंदिर की खासियत ये है कि इसे केवल एक ही चट्टान को काटकर बनाया गया है। ऊंचाई की अगर बात करें तो यह मंदिर किसी दो या तीन मंजिला इमारत के बराबर है। यह मंदिर परिसर नीचे से ऊपर की बजाय ऊपर से नीचे तक बनाया गया था। यह काम एक छेनी और हथौड़े से किया गया था। इस भव्य मंदिर को देखने के लिए सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि दुनियाभर से लोग आते हैं।
कहा जाता है कि इस मंदिर के निर्माण में करीब 40 हजार टन वजनी पत्थरों को काटा गया था। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। इसकी सबसे बड़ी खासियत ये है कि इसका रूप हिमालय के कैलाश की तरह देने का प्रयास किया गया है। कहते हैं कि इसे बनवाने वाले राजा का मानना था कि अगर कोई इंसान हिमालय तक नहीं पहुंच पाए तो वो यहां आकर अपने अराध्य भगवान शिव का दर्शन कर ले।
इस मंदिर का निर्माण कार्य मालखेड स्थित राष्ट्रकूट वंश के नरेश कृष्ण (प्रथम) (757-783 ई.) ने शुरु करवाया था। माना जाता है कि इसे बनाने में 100 साल से भी ज्यादा का समय लगा था और करीब 7000 मजदूरों ने दिन-रात एक करके इस मंदिर के निर्माण में अपना योगदान दिया था।
कैलाश मंदिर का इतिहास
इसका निर्माण राष्ट्रकुल के राजा कृष्ण प्रथम ने कराया था। कहा जाता है कि एक बार राजा गंभीर रूप से बीमार हो गए। जिसके बाद उनका काफी इलाज कराया गया लेकिन उनकी हालत में कोई सुधार नहीं आया। तब रानी ने भोलेनाथ से प्रार्थना की कि वह राजा को स्वस्थ कर दें। उनके स्वस्थ होते ही वह मंदिर का निर्माण करवाएंगी और मंदिर का शिखर देखने तक व्रत रखेंगी।
इसके बाद भगवान भोलेनाथ की कृपा से राजा बिलकुल स्वस्थ्य हो गए और रानी ने जब राजा को पूरी बात की जानकारी दी तो राजा ने कहा कि मंदिर के शिखर को बनने में तो कई साल लग जाएंगे तब तक तुम व्रत कैसे रखोगी। इतने वर्षों तक व्रत रख पाना संभव नहीं होगा। तब रानी ने भोलेनाथ से मदद मांगी।
मान्यता है कि तब उन्हें भगवान शिव से भूमिअस्त्र मिला। जो कि पत्थर को भी भाप बना सकता था। इस अस्त्र का जिक्र ग्रंथों में भी मिलता है। मान्यता है कि उसी अस्त्र से इस मंदिर का निर्माण हुआ और मंदिर बनने के बाद उस अस्त्र को मंदिर के नीचे गुफा में रख दिया गया। दुनियाभर के विज्ञानी भी यही मानते हैं कि इतने कम समय में पारलौकिक शक्तियों द्वारा ही ऐसे मंदिर का निर्माण संभव है। अन्यथा आज के समय में भी ऐसा मंदिर इतने कम समय में और एक पत्थर को ऊपर से नीचे तराश कर बनाना संभव नहीं है।
वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं के अनुमान के अनुसार इस पहाड़ी से लगभग 400,000 टन पत्थरों को काटा गया होगा। और इस कार्य में 7,000 लोग लगे होंगे, जिन्होंने करीब 150 साल तक काम किया होगा। लेकिन स्त्रोतों की मानें तो महज यह मन्दिर मात्र 17 वर्षों में बन कर तैयार हो गया था। कैलाश मंदिर देखने में जितना अद्धभुत दिखता है, उतना ही रहस्यमय है। इस मंदिर से कई रहस्य जुड़े हुए है।
जिसमें सबसे बड़ा रहस्य मंदिर की गुफाएं है। कुछ दशकों पहले तक कुछ गुफाएं आम पर्यटकों के लिए खुली हुईं थीं, लेकिन सरकार के आदेश के बाद इन गुफओं को बंद कर दिया गया। आर्कियोलोजिस्ट की एक रिसर्च के अनुसार इन गुफाओं में रेडिएशन है। तहखानों की गुफाओं के एक स्थान से रेडियो एक्टिविटी तरंगे निकल रही हैं। जिसके चलते इसके अंदर रूकना असंभव है। इस मंदिर में आज तक कभी पूजा नहीं हुई। यहां आज भी कोई पुजारी नहीं है।
कहा जाता है कि कैलाश मंदिर की इन गुफाओं को अंग्रेजों ने बंद कर दिया था और मंदिर से जुड़ी रिसर्च को भी नष्ट कर दिया गया था। शासकीय औपचारिकता में बताया गया था कि, इन गुफाओं में फिसलन वाली ढलान है, यहाँ पर रेडिएशन है। इसलिए यहां पर जाने पर जान का जोखिम है। इसलिए इन गुफाओं को बंद कर दिया गया है।
यूनेस्को ने 1983 में ही इस जगह को 'विश्व विरासत स्थल' घोषित किया है।