माघ कृष्ण चतुर्थी को सकट चौथ का त्योहार मनाया जाता है। अपनी संतान की मंगलकामना के लिए स्त्रियाँ माघ मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को व्रत रखती है। इसे संकष्टी चतुर्थी, लंबोदर संकष्टी चतुर्थी,तिलकुटा चौथ एवं माघी चौथ के नाम से जाना जाता है। इस दिन स्त्रियां अपने संतान की दीर्घायु और सफलता के लिये व्रत करतीं है एवं कथा सुनती है।
इस दिन संकट हरण गणपति गणेश जी का पूजन होता है। इस व्रत को करने से सभी कष्ट दूर हो जाते है और समस्त इच्छाओ व कामनाओं की पूर्ति होती है। इस दिन स्त्रियाँ दिन भर निर्जल व्रत रखती है। पूजा के बाद शाम को फलहार लेती है। तिल को भूनकर गुड़ के साथ कूट लिया जाता है।
तिलकुट का बकरा बनाया जाता है, शाम को सकट माता की पूजा की जाती है, पूजा के बाद कथा सुनते है। घर का कोई बच्चा तिलकुट के बकरे की गर्दन काट देता है। सबको इसका प्रसाद दिया जाता है। दूसरे दिन सुबह स्त्रियाँ सकट माता को चढ़ाये गये पूरी - पकवानों को प्रसाद रूप में ग्रहण करती है।
सकट चौथ व्रत कथा
सकट चौथ कथा देवरानी जेठानी वाली
एक समय की बात है एक शहर में देवरानी जेठानी रहती थी। देवरानी गरीब थी और जेठानी अमीर थी। देवरानी गणेश जी की बड़ी भक्त थी। देवरानी का पति जंगल से लकड़ी काट कर उसे बेचता था और अक्सर बीमार रहता था। देवरानी अपनी जेठानी के घर का सारा काम करती और बदले में जेठानी उसे बचा हुआ खाना, पुराने कपड़े आदि दे देती थी। इसी से देवरानी का परिवार चल रहा था।
माघ महीने में देवरानी ने तिल चौथ का व्रत किया। 5 रुपये का तिल व गुड़ लाकर तिलकुट्टा बनाया। पूजा करके तिल चौथ की कथा सुनी और तिलकुट्टा छींके में रख दिया और सोचा की चांद निकलने के बाद ही कुछ खायेगी।
इस तरह से कथा सुनकर वह जेठानी के यहां काम करने चली गई। खाना बनाकर जेठानी के बच्चों को खाना खाने को कहा तो बच्चे बोले- माँ ने व्रत किया हैं और माँ भूखी हैं। जब माँ खाना खायेगी तभी हम भी खाएंगे।
जेठजी को खाना खाने को कहा तो जेठजी बोले मैं अकेला नहीं खाऊँगा, जब चाँद निकलेगा, तभी मैं खाऊंगा। देवरानी ने कहा- मुझे घर जाना है इसलिए मुझे खाना दे दो। जेठानी ने उसे कहा- आज तो किसी ने भी अभी तक खाना नहीं खाया तुम्हें कैसे दे दूँ? तुम सवेरे ही बचा हुआ खाना ले जाना। देवरानी उदास होकर घर चली आईी देवरानी के घर पर पति, बच्चे सब आस लगाए बैठे थे की आज तो त्यौहार हैं इसलिए कुछ अच्छा खाना खाने को मिलेगा। परन्तु जब बच्चों को पता चला कि आज तो रोटी भी नहीं मिलेगी तो बच्चे रोने लगे।
ये देखकर देवरानी के पति को गुस्सा आ गया और कहने लगा कि दिन भर काम करने के बाद भी दो रोटियां नहीं ला सकती। तो काम क्यों करती हो? पति ने गुस्से में आकर पत्नी को कपड़े धोने के धोवने से पीटा। धोवना हाथ से छूट गया तो पाटे से मारा। वो बेचारी गणेश जी को याद करती हुई रोते हुए पानी पीकर सो गयी।
उस दिन गणेश जी देवरानी के सपने में आये और कहने लगे धोवने मारी, पाटे मारी, सो रही है या जाग रही है। वह बोली कुछ सो रहे हैं, कुछ जाग रहे है गणेश जी बोले भूख लगी है, खाने के लिए कुछ दे। देवरानी बोली: क्या हूं, मेरे घर में तो अन्न का एक दाना भी नहीं है। जेठानी बचा हुआ खाना देती थी आज वो भी नहीं मिला। देवरानी ने आगे कहा कि पूजा का बचा हुआ तिलकुटा छींके में पड़ा हैं, वही खा लो। गणेश जी ने तिलकुट खाया और उसके बाद कहने लगे - "धोवने मारी, पाटे मारी, निमटाई लगी है! कहां निमटे"
उसने कहा यह खाली झोपड़ी है आप कहीं भी जा सकते हैं, जहां इच्छा हो वहां निमट लो फिर गणेश जी बोले अब कहां पोंछू अब देवरानी को बहुत गुस्सा आया कहने लगी कब से परेशान किया जा रहा है, सो बोली 'मेरे सिर पर पोंछो। देवरानी जब सुबह उठी तो यह देखकर हैरान रह गई कि पूरा घर हीरो और मोतियों से जगमगा उठा है। सिर पर जहां गणेश जी पोछनी कर गये थे वहां हीरे के टीके और बिंदी जगमगा रहे थे।
इसके बाद देवरानी जेठानी के यहां काम करने नहीं गई। जेठानी ने कुछ देर तो राह देखी फिर बच्चों को देवरानी को बुलाने भेज दिया। जेठानी ने सोचा कल खाना नहीं दिया था इसीलिए शायद देवरानी बुरा मान गई होगी। बच्चे बुलाने गए और बोले- चाची चलो। मां ने बुलाया है। दुनिया में चाहे कोई मौका चूक जाए पर देवरानी जेठानी आपस में कहने का मौका नहीं छोड़ती।
देवरानी ने कहा बेटा बहुत दिन तेरी मां के यहां काम कर लिया, अब तुम अपनी मां को ही मेरे यहाँ काम करने भेज दो बच्चों ने घर जाकर मां से कहा कि चाची का पूरा घर हीरो और मोतियों से जगमगा उठा है। जेठानी दौड़कर देवरानी के घर गई और पूछा कि यह सब कैसे हो गया ?
देवरानी ने जेठानी को सब बता दिया जो भी उसके साथ हुआ था। घर लौटकर जेठानी ने कुछ सोचा और अपने पति से कहने लगी- आप मुझे धोवने और पाटे से मारो । उसका पति बोला कि भली मानस मैने तो कभी तुम पर हाथ भी नहीं उठाया। तुम्हें धोवने और पाटे से कैसे मार सकता हूं। वो नहीं मानी और जिद करने लगी। मजबूरन पति को उसे मारना पड़ा। मार खाने के बाद, उसने ढ़ेर सारा घी डालकर चूरमा बनाया और छीके में रख सो गयी। रात गणेश जी जेठानी के सपने में भी आए और कहने लगे कि उन्हें भूख लगी है, "मैं क्या खाऊ",
जेठानी ने कहा, "हे भगवान गणेश, आपने मेरी देवरानी के घर पर एक चुटकी सूखा तिलकुट खाया था। मैंने तो झरते घी का चूरमा बनाया है और आपके लिए छीके में रखा है, फल और मेवे भी रखे है जो चाहे खा लो" गणेश जी बोले, 'अव निपटे कहां जेठानी बोली उसके यहाँ एक टूटी हुई झोपड़ी थी, मेरे यहां एक उत्तम दर्जे का महल है। जहां चाहो निपटो फिर गणेश जी ने पूछा,अव पोंछू कहां वो वोली मेरे ललाट पर बड़ी ही बिंदी लगाकर पोछ लो।
धन की भूखी जेठानी सुबह जल्दी उठ गई सोचा घर हीरे-जवाहारात से भर चुका होगा। लेकिन उसने देखा कि उसका पूरा घर बदबू से भर गया था और उसके सिर पर भी बहुत सी गदगी लगी हुई थी। उसने कहा हे गणेश जी महाराज, ये आपने क्या किया, मुझसे रूठे और देवरानी पर टूटे। जेठानी ने घर की सफाई करने की बहुत कोशिश की परन्तु गंदगी और ज्यादा फैलती गई। जेठानी के पति को मालूम चला तो वो भी बहुत गुस्सा हुआ और वोला तेरे पास इतना सब कुछ था फिर भी तेरा मन नहीं भरा।
परेशान होकर चौथ के गणेश जी से मदद की विनती करने लगी। बोली- मुझसे बड़ी भूल हुई। मुझे क्षमा करो । गणेश जी ने कहा देवरानी से जलन के कारण जो तुने किया है उसी का फल तुझे मिला है। अब तू अपने धन में से आधा उसे देगी तभी यह सब साफ होगा।
उसने आधा धन तो बांट दिया किन्तु मोहरों की एक हांडी चूल्हे के नीचे गाढ़ रखी थी। उसने सोचा किसी को पता नहीं चलेगा और उसने उस धन को नहीं बांटा। जेठानी ने गणेश जी से कहा हे चौथ गणेश जी, अब तो अपना ये बिखराव समेटो। वे बोले, पहले चूल्हे के नीचे गाढ़ी हुयी मोहरों की हांडी और ताक में रखी सुई की भी पांति कर। इस प्रकार गणेश जी ने सुई जैसी छोटी चीज का भी बंटवारा करवाकर अपनी माया समेटी।
हे गणेश जी महाराज, जैसी आपने देवरानी पर कृपा करी वैसी सब पर करना। कहानी कहने वाले, सुनने वाले व हुंकारा भरने वाले सब पर कृपा करना। किन्तु जेठानी को जैसी सजा दी वैसी किसी को मत देना।
बोलो गणेश जी महाराज की - जय !!!
सकट चौथ व्रत कथा बुढ़िया और उसके लड़के वाली
किसी नगर मे एक कुम्हार रहता था। एक बार उसने बर्तन बनाकर आँवा लगाया तो आँवा पका ही नही। हारकर वह राजा के पास जाकर प्रार्थना करने लगा। राजा ने राजपंड़ित को बुलाकर कारण पूछा तो राजपंड़ित ने कहा कि हर बार आंवा लगाते समय बच्चे कि बलि देने से आँवा पक जाएगा। राजा का आदेश हो गया। बलि आरम्भ हुई। जिस परिवार की बारी होती वह परिवार अपने बच्चो मे से एक बच्चा बलि के लिए भेज देता।
इसी तरह कुछ दिनों बाद सकट के दिन एक बुढ़िया के लड़के की बारी आई । बुढ़िया के लिए वही जीवन का सहारा था । माँ की ममता राजा आज्ञा कुछ नही देखती। दुःखी बुढ़िया सोच रही थीं कि मेरा तो एक ही बेटा है, वह भी सकट के दिन मुझसे जुदा हो जाएगा। बुढ़िया ने लड़के को सकट की सुपारी और दूब का बीड़ा देकर कहा " भगवान का नाम लेकर आँवा मे बैठ जाना। सकट माता रक्षा करेंगी ।" बालक आँवा मे बिठा दिया गया और बुढ़िया सकट माता के सामने बैठ कर पुजा करने लगी।
पहले तो आँवा पकने में कई दिन लग जाते थे, पर इस बार सकट माता की कृपा से एक ही रात में ऑवा पक गया था। सवेरे कुम्हार ने देखा तो हैरान रह गया। आँवा पक गया था। बुढ़िया का बेटा तथा अन्य बालक भी जीवित एवं सुरक्षित थे। नगर वासियों ने सकट की महिमा स्वीकार की तथा लड़के को भी धन्य माना। सकट माता की कृपा से नगर के अन्य बालक भी जी उठे। बोलो सकट माता की - जय !!!