मध्य प्रदेश राज्य के उज्जैन शहर ( प्राचीन नाम अवन्तिका, उज्जयिनी) में शिप्रा तट के निकट महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थित है। श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से तीसरा ज्योतिर्लिंग है। इसकी खास बात यह है कि यह एक मात्र दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग है। श्री महाकालेश्वर को पृथ्वी लोक का राजा कहा जाता है। वह प्रलय, संहार और काल के देवता हैं। महाकाल के दर्शन के बाद मृत्यु का भय दूर हो जाता है।
श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग
ऐसी मान्यता है कि सच्चे मन से उनकी भक्ति करने वाला कभी "अकाल मृत्यु" को प्राप्त नहीं होता तभी उनके बारे में कहावत है कि-
"अकाल मृत्यु वो मरे जो काम करे चंडाल का,
काल उसका क्या करे जो भक्त हो महाकाल का"
महाकालेश्वर मंदिर का इतिहास
महाकाल मंदिर का इतिहास सदियों पुराना है। पौराणिक साक्ष्यों के अनुसार ब्रह्माजी ने स्वयं धरती पर आकर श्रीमहाकलेश्वर धाम की स्थापना की थी। इससे महाकालेश्वर मंदिर की महिमा और महात्म्य का अंदाजा लगाया जा सकता है। शिवपुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार उज्जैन का महाकालेश्वर मंदिर योगेश्वर श्रीकृष्ण के पालक नंदबाबा की आठ पीढ़ी पूर्व का है। महाकालेश्वर को पृथ्वी का अधिपति भी माना जाता है। इस संबंध में एक श्लोक भी है-
आकाशे तारकेलिंगम्, पाताले हाटकेश्वरम्
मृत्युलोके च महाकालम्, त्रयलिंगम् नमोस्तुते।।इस मंत्र का हिंदी अर्थ है कि "आकाश में तारकलिंग, पाताल में हाटकेश्वर और मृत्युलोक यानी धरती पर महाकालेश्वर, इन तीनों लिंगों को हम नमस्कार करते हैं"।
द्वापर युग में जब भगवान श्रीकृष्ण उज्जैन में शिक्षा प्राप्त करने आए थे, तो उन्होंने महाकाल स्त्रोत का गान किया था। गोस्वामी तुलसीदास ने भी महाकाल मंदिर का उल्लेख किया है। छठी शताब्दी में राजा चंद्रप्रद्योत के समय महाकाल उत्सव हुआ था। राजा चंद्रप्रद्योत ने महाकाल परिसर की व्यवस्था के लिए अपने बेटे कुमार संभव को नियुक्त किया था।
महाकाल मंदिर में तीसरी-चौथी ई.पूर्व के कुछ सिक्के भी मिले थे, जिन पर भगवान शिव (महाकाल) की आकृति बनी थी। गुप्त काल से पहले यहां कि मंदिरों पर कोई शिखर नहीं थे। मंदिरों की छतें ज्यादातर सपाट थीं। संभवतः इसी कारण से रघुवंशम में कालिदास ने इस मंदिर को 'निकेतन' कहा है। मंदिर के पास ही तत्कालीन राजा विक्रमादित्य का महल था।
राजा विक्रमादित्य ने हिंदुओं के लिए एक ऐतिहासिक कैलेंडर विक्रम संवत निर्माण कराया था, जो वर्तमान में एक प्रचलित हिन्दू पंचांग है। छठीं से 11वीं ई. पूर्व में एक गजनवी सेनापति ने मालवा (उज्जैन) पर आक्रमण किया। उसने बेरहमी से लूटा और कई मंदिरों व मूर्तियों को नष्ट कर दिया।
11वीं शताब्दी में मालवा पर शासन करने वाले परमार राजवंश ने मंदिर के विकास और महत्व में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके शासनकाल के दौरान मंदिर का व्यापक पुनर्निर्माण और नवीनीकरण हुआ। 11वीं शताब्दी में गजनी के सेनापति ने मंदिर को नुकसान पहुंचाया था। इसके बाद सन् 1234 में दिल्ली के शासक इल्तुतमिश ने महाकाल मंदिर पर हमला कर पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया था। उसने मंदिर पर आक्रमण कर सारे पौराणिक साक्ष्यों को मिटाने का भी प्रयास किया।
औरंगजेब ने मंदिर के अवशेषों से एक मस्जिद का निर्माण करा दिया था। उस वक्त पुजारियों ने महाकाल ज्योतिर्लिंग को कुंड में छिपा दिया था। करीब 500 वर्षों तक भगवान महाकाल को जल समाधि में रहना पड़ा। मंदिर टूटने के बाद करीब 500 वर्षों से अधिक समय तक महाकाल का मंदिर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में रहा और ध्वस्त मंदिर में ही महादेव की पूजा आराधना की जाती थी, ध्वस्त मंदिर का कई राजाओं ने दोबारा निर्माण करवाया। 12वीं सदी के आरंभ काल में राजा उदयादित्य और नरवर्मन के शासनकाल के दौरान महाकाल मंदिर का पुनर्निर्माण किया गया था।
1107 से 1728 ई. तक उज्जैन में यवनों का शासन था। इस दौरान हिंदुओं की प्राचीन धार्मिक परंपराओं-मान्यताओं को नष्ट करने का प्रयास किया गया। साल 1728 में मराठों ने उज्जैन पर कब्जा कर लिया। इसके बाद उज्जैन का खोया हुआ गौरव फिर से लौटा। 1731 से 1809 तक उज्जैन मालवा की राजधानी रहा। मराठों के शासनकाल में उज्जैन में दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। पहली महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग को पुनः प्रतिष्ठित किया गया और दूसरी शिप्रा नदी के तट पर सिंहस्थ पर्व कुंभ शुरू हुआ।
मंदिर के पुनर्निर्माण और ज्योतिर्लिंग की पुन: प्राणप्रतिष्ठा कराने से पहले राणोजी सिंधिया ने उस मस्जिद को ध्वस्त करा दिया था जो औरंगजेब ने बनाया था। मंदिर का पुनर्निर्माण ग्वालियर के सिंधिया राजवंश के संस्थापक महाराजा राणोजी सिंधिया ने कराया था। उन्हीं की प्रेरणा पर यहां सिंहस्थ समागम की भी दोबारा शुरुआत हुई।सिंहस्थ का संबंध सिंह राशि से है। जब सिंह राशि में बृहस्पति और मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होता है, तो उज्जैन में कुंभ का आयोजन होता है, जिसे सिंहस्थ के नाम से जाना जाता है।
महाकालेश्वर मंदिर एक विशाल परिसर में स्थित है, जहाँ कई देवी-देवताओं के छोटे-बड़े मंदिर हैं। वर्तमान समय में यह मंदिर पांच मंजिला है। मंदिर में प्रवेश करने के लिए मुख्य द्वार से गर्भगृह तक की दूरी तय करनी पड़ती है। इस मार्ग में कई सारे पक्के चढ़ाव उतरने पड़ते हैं परंतु चौड़ा मार्ग होने से यात्रियों को दर्शनार्थियों को अधिक परेशानियाँ नहीं आती है। गर्भगृह में प्रवेश करने के लिए पक्की सीढ़ियाँ बनी हैं।
मंदिर परिसर में एक प्राचीन कुंड है। इस कुंड के पूर्व में एक विशाल बरामदा है, जिसमें गर्भगृह की ओर जाने वाले मार्ग का प्रवेश द्वार है, जहाँ गणेश, कार्तिकेय और पार्वती के छोटे आकार के चित्र भी पाए जा सकते हैं। गर्भगृह की छत को ढकने वाली गूढ़ चांदी की प्लेट मंदिर की भव्यता में इजाफा करती है। दीवारों के चारों ओर भगवान शिव की स्तुति में शास्त्रीय स्तुति प्रदर्शित की जाती है। बरामदे के उत्तरी हिस्से में एक कोठरी में श्री राम और देवी अवंतिका की छवियों की पूजा की जाती है।
गर्भगृह में विराजित भगवान महाकालेश्वर का विशाल दक्षिणमुखी शिवलिंग है, इसी के साथ ही गर्भगृह में माता पार्वती, भगवान गणेश व कार्तिकेय की मोहक प्रतिमाएँ हैं। गर्भगृह में नंदी दीप स्थापित है, जो सदैव प्रज्ज्वलित होता रहता है। गर्भगृह के सामने विशाल कक्ष में नंदी की प्रतिमा विराजित है। इस कक्ष में बैठकर हजारों श्रद्धालु शिव आराधना का पुण्य लाभ लेते हैं। इस मंदिर के तीन मंजिलों पर क्रमशः महाकालेश्वर, ओंकारेश्वर और नागचंद्रेश्वर का निवास है। ये मंदिर साल में केवल एक बार नाग पंचमी पर ही खुलता है।
शिव पुराण में श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति की वर्णित कथा
महाकालेश्वर मंदिर की भस्म आरती
शिव पुराण की ‘कोटि-रुद्र संहिता’ के सोलहवें अध्याय में भगवान महाकाल के ज्योतिर्लिंग संबंध में सूतजी द्वारा जिस कथा को वर्णित किया गया है, उसके अनुसार अवंती नाम का एक रमणीय नगर था, जो भगवान भोलेनाथ को बहुत प्रिय था। कारण था इस स्थान पर होने वाले घार्मिक कार्य और कई प्रकार के अनुष्ठान।
उसी पवित्र नगर में शुभ कर्मपरायण तथा सदा वेदों के स्वाध्याय में लगे रहने वाले एक उत्तम ब्राह्मण रहा करते थे। वे अपने घर में अग्नि की स्थापना कर प्रतिदिन हवन करते थे और वैदिक कर्मों के अनुष्ठान में लगे रहते थे। वे सदा शिव जी की अर्चना-वन्दना में तत्पर रहा करते थे। वे प्रतिदिन पार्थिव लिंग का निर्माण कर शास्त्र विधि से उसकी पूजा करते थे। हमेशा उत्तम ज्ञान को प्राप्त करने में तत्पर उस ब्राह्मण का नाम ‘वेदप्रिय’ था।
वेदप्रिय स्वयं ही शिव जी के अनन्य भक्त थे, जिसके संस्कार के फलस्वरूप उनके चार पुत्र हुए। वे तेजस्वी तथा माता-पिता के सद्गुणों के अनुरूप थे। उन चारों पुत्रों के नाम देवप्रिय, प्रियमेधा, सुकृत और सुव्रत थे।
उस समय रत्नमाल पर्वत पर दूषण नामक असुर रहता था। वह बलवान असुर धर्म से द्वेष करता था। ब्रह्मा जी से वरदान पाकर वह जगत को तुच्छ समझने लगा और उसने देवताओं को हराकर उनको उनके स्थानों से निकाल दिया। वह धर्मस्थलों और धार्मिक कार्यों को वाधित करने में लगा रहता था।
सबको सताने के बाद अन्त में उस असुर ने भारी सेना लेकर अवन्ति (उज्जैन) नगरी में भी आया। उसने व्राह्मणों को धर्म कर्म छोड़ने का आदेश दिया लेकिन किसी भी व्राह्मण ने उसके आदेश को नहीं माना। तब उसने अपनी सेना सहित अवंति नगरी में उत्पात मचाना शुरू कर दिया जिससे हर तरफ जन साधारण में हाहाकार मच गया।
उनके भयंकर उपद्रव से भी शिव जी पर विश्वास करने वाले वे ब्राह्मणबन्धु भयभीत नहीं हुए। अवन्ति नगर के निवासी सभी ब्राह्मण जब उस संकट में घबराने लगे, तब उन चारों शिवभक्त भाइयों ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा- आप लोग भक्तों के हितकारी भगवान शिव पर भरोसा रखें। उसके बाद ब्राह्मणबन्धु ने अपने आराध्य भगवान शिव की शरण में जाकर प्रार्थना और स्तुति आरम्भ कर दी, शिव जी का पूजन कर उनके ही ध्यान में तल्लीन हो गये।
सेना सहित दूषण ध्यानमग्न उन ब्राह्मणों के पास पहुँच गया। उन ब्राह्मणों को देखते ही ललकारते हुए बोल उठा कि इन्हें बाँधकर मार डालो। उन ब्राह्मण पुत्रों ने उस दैत्य के द्वारा कही गई बातों पर ध्यान न देकर शिव की भक्ति में मग्न रहे। उनकी भक्ति से क्रोधित होकर असुर ने ब्राह्मणों को मार डालने का निश्चय किया।
उसने ज्योंही उन शिवभक्तों के प्राण लेने हेतु शस्त्र उठाया, त्योंही उनके द्वारा पूजित उस पार्थिव लिंग की जगह तेज गर्जना के साथ एक गड्ढा प्रकट हो गया और तत्काल उस गड्ढे से विकट और भयंकर रूपधारी भगवान शिव प्रकट हो गये। विकट रूप धारी शिव ने भक्तों को आस्वस्त किया और गगनभेदी हुंकार भरकर दैत्यों से कहा- ‘अरे दुष्टों! तुम जैसे हत्यारों के नाश के लिए ही मैं ‘महाकाल’ प्रकट हुआ हूँ।
जल्दी इन ब्राह्मणों के समीप से दूर भाग जाओ। ऐसा कहकर महाकाल भगवान शिव ने अपने हुंकार मात्र से ही उस दूषण और उसकी सेना को भस्म कर दिया। इस प्रकार परमात्मा शिव ने दूषण नामक दैत्य का वध कर दिया।
जिस प्रकार सूर्य के निकलते ही अन्धकार छँट जाता है, उसी प्रकार भगवान आशुतोष शिव को देखते ही बाकि सभी दैत्य सैनिक पलायन कर गये। उन शिवभक्त ब्राह्मणबन्धु पर प्रसन्न भगवान शंकर ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा – मैं महाकाल महेश्वर तुम लोगों पर अति-प्रसन्न हूँ, तुम लोग वर मांगो।
महाकालेश्वर की वाणी सुनकर भक्ति भाव से पूर्ण उन ब्राह्मणों ने हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक प्रार्थना की – दुष्टों को दण्ड देने वाले महाकाल प्रभु आप हम सबको इस संसार रूपी सागर से मुक्त कर दें। हे भगवान शिव! जन कल्याण तथा उनकी रक्षा करने के लिए यहीं हमेशा के लिए निवास करें। तथा अपने स्वयं स्थापित स्वरूप के दर्शनार्थी मनुष्यों का सदा उद्धार करते रहें।
इस प्रार्थना से प्रसन्न होकर अपने भक्तों की सुरक्षा के लिए भगवान महाकाल उस स्थान पर स्थिर रूप से स्थापित हो गये। इस प्रकार भगवान शिव इस स्थान पर महाकालेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए।
एक अन्य प्रचलित कथा
पुराणों के अनुसार उज्जयिनी नगरी में चन्द्रसेन नामक राजा राज करते थे। वह भगवान शिव के अन्नय भक्त थे। उनके सदाचरण से प्रभावित होकर शिवजी के गणों में मुख्य गण मणिभद्र जी राजा चन्द्रसेन के मित्र बन गये। एक बार उन्होंने राजा चन्द्रसेन ने को चिन्तामणि नामक एक महामणि भेंट की। मणि प्राप्त करने के बाद राजा ने मणि जैसे ही गले में धारण की तो सारा प्रभामण्डल जगमगा उठा, साथ ही उसे धारण करने के बाद दूरस्थ देशों में उनके यश और कीर्ति में वृद्धि होने लगी।
जब इस मणि के बारे में दूसरे राज्य के राजाओं को जानकारी मिली तो उन राजाओं में उस मणि के प्रति लोभ बढ़ गया और उन्होंने मणि को प्राप्त करने के प्रयास शुरू कर दिए। कई राजाओं ने राजा चन्द्रसेन से मणि की मांग की लेकिन राजा को यह मणि अत्यंत प्रिय थी अत: उन्होंने इसे किसी को भी देने से इन्कार कर दिया। अंतत: वे सभी राजा एक साथ मिलकर एकत्रित हुए और उन सभी राजाओं ने आपस में परामर्श करके राजा चन्द्रसेन पर आक्रमण कर दिया।
सैनिकों सहित उन राजाओं ने चारों ओर से उज्जयिनी राज्य को घेर लिया। अपने राज्य को चारों ओर से सैनिकों द्वारा घिरा हुआ देखकर शिव भक्त राजा चन्द्रसेन भगवान शिव की शरण में पहुंच गये। वे निश्छल मन से दृढ़ निश्चय के साथ भगवान महाकाल के ध्यान में मग्न हो गये। जिस समय राजा ध्यानमग्न थे, उसी समय उज्जयिनी में रहने बाली एक विधवा ग्वालिन अपने इकलौते पांच वर्ष के बालक को लेकर भगवान शिव का दर्शन करने हेतु गई।
राजा को शिव भक्ति में ध्यानमग्न देखकर उस बालक को बहुत ही आश्चर्य हुआ। राजा को ध्यानमग्न देखकर वह बालक शिव भक्ति के लिए प्रेरित हुआ। घर पहुंचने के बाद वह कहीं से एक सुन्दर पत्थर उठाकर लाया और अपने निवास से कुछ ही दूरी पर एकान्त में बैठकर पत्थर को शिवलिंग मानकर भक्तिभाव से उसकी पूजा करने लगा।
उसी समय ग्वालिन ने भोजन के लिए बालक को बुलाया। उधर बालक शिव जी की पूजा में लीन था, जिसके कारण उसने मां की बात को नहीं सुना। माता द्वारा बार-बार बुलाने पर भी जब बालक नहीं आया तो तब मां स्वयं उठकर वहां आ गयी। माँ ने देखा कि बालक एक पत्थर के सामने आंखें बन्द करके भक्ति में मग्न है और उसकी आवाज को नहीं सुन रहा है।
तो वह उसका हाथ पकड़कर बार-बार खींचने लगी पर इस पर भी बालक वहां से नहीं उठा तो क्रोधित मां ने उसे पीटना शुरू कर दिया और पूजा सामग्री और उस पत्थर को उठाकर दूर फेंक दिया। जब बालक ध्यानमुक्त होकर चेतना मे आया तो उसने देखा कि भगवान शिव जी की पूजा को उसकी माता ने नष्ट कर दिया, तो वह बहुत दुखी हुआ और बिलख-बिलख कर रोने लगा।
तभी वहाँ अचानक से एक चमत्कार हुआ। और भगवान शिव की कृपा से एक सुन्दर दिव्य मंदिर का निर्माण हो गया। मंदिर के मध्य एक दिव्य शिवलिंग स्थापित था और उस शिवलिंग पर बालक द्वारा अर्पित की गई सभी पूजा सामग्री भी थी। इस तरह से वहां पर महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति हुई। जब माता ने यह चमत्कार देखा, तो वह अश्चर्यचकित हुई और उसने भावविभोर होकर अपने पुत्र को गले से लगा लिया।
जब राजा चन्द्रसेन को भगवान शिव की असीम कृपा से घटी इस घटना के बारे में पता चला तो वह बालक से मिलने उसके पास पहुंचे। उज्जयिनि को चारों ओर से घेर कर युद्ध के लिए खड़े उन राजाओं ने भी गुप्तचरों के मुख से प्रातःकाल उस अद्भुत वृत्तान्त को सुना। इस विलक्षण घटना को को सुनकर सभी नरेश आश्चर्यचकित हो उठे।उन्होंने कहा कि राजा चन्द्रसेन महान शिव भक्त है। इसलिए इन पर विजय प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है।
ये सभी प्रकार से निर्भय होकर महाकाल की नगरी उच्चयिनी का पालन-पोषण करते हैं। जब इस नगरी का एक छोटा बालक भी ऐसा शिवभक्त है, और राजा चन्द्रसेन भी शिवभक्त है। ऐसे राजा के साथ विरोध करने पर निश्चय ही भगवान शिव क्रोधित हो जाएँगे। शिव के क्रोध करने पर तो हम सभी नष्ट ही हो जाएँगे।
इसलिए हमें इस नरेश से दुश्मनी न करके मेल-मिलाप ही कर लेना चाहिए, जिससे भगवान शिव की कृपा हमें भी प्राप्त होगी। ऐसा विचार कर वे भी युद्ध की मंशा छोड़कर भगवान महाकाल की शरण में पहुंचे।
उसी समय राम भक्त हनुमान वहाँ प्रकट हुए और गोद में उठाकर उस बालक का भविष्य बताया कि यह बालक अब गोप वंश की कीर्ति को बढ़ाने वाला तथा उत्तम शिवभक्त हो गया है। भगवान शिव की कृपा से यह इस लोक के सम्पूर्ण भोगों का उपभोग करेगा और अन्त में मोक्ष को प्राप्त कर लेगा। इसी बालक के कुल में इससे आठवीं पीढ़ी में महायशस्वी नन्द उत्पन्न होंगे और उनके यहाँ ही साक्षात नारायण का प्रादुर्भाव होगा वे भगवान नारायण ही नन्द के पुत्र के रूप में प्रकट होकर श्रीकृष्ण के नाम से जगत में विख्यात होंगे।
यह गोप बालक भी, जिस पर कि भगवान शिव की कृपा हुई है। श्रीकर गोप के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त करेगा। उसके बाद अति प्रसन्नता के साथ उन्होंने बालक और समस्त जन समुह को भगवान शिव की पूजा-अर्चना की जो विधि और आचार-व्यवहार भगवान शिव को विशेष प्रिय है, उसे विस्तार से बताया। अपना कार्य पूरा करने के बाद वे उपस्थित समस्त जनसमुह से विदा लेकर वहीं पर अर्न्तधान हो गये। राजा चन्द्रसेन से विदा लेकर कर सभी अन्य राजा भी अपनी राजधानियों को वापस लौट गये।
कहा जाता है भगवान महाकाल तब ही से उज्जयिनी में स्वयं विराजमान है। भगवान महाकाल ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने बाले भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं और उनका कल्याण करते हैं।
महाकालेश्वर मंदिर में दिन में 6 बार आरती की जाती है। इसकी शुरुआत भस्म आरती से ही होती है। महाकाल मंदिर में सुबह 4 बजे भस्म आरती होती है। इसे मंगला आरती भी कहा जाता है। यह आरती महाकाल को उठाने के लिए की जाती है। महाकाल की आरती में केवल ढोल नगाड़े बजाकर महाकाल को उठाया जाता है।
प्राचीन काल में रात में अंतिम संस्कार किए गए पहले अंतिम संस्कार से प्राप्त चिता भस्म या राख का उपयोग करके भगवान महाकाल का श्रृंगार किया जाता था। लेकिन आजकल इसका स्थान पर अब कपिला गाय के गोबर से बने कंडे, शमी, पीपल, पलाश, बड़, अमलतास और बैर के पेड़ की लकडि़यों को जलाकर भस्म तैयार की जाती है। मंत्र-जप करते हुए भस्म को शुद्ध किया जाता है। इसके बाद इस भस्म को कपड़े से छानते हैं और फिर इस भस्म से महाकाल की आरती की जाती है।
मान्यता है कि ज्योतिर्लिंग पर चढ़े भस्म को प्रसाद रूप में ग्रहण करने से रोग दोष से भी मुक्ति मिलती है। यहां आरती करने का अधिकार सिर्फ यहां के पुजारियों को होता है बाकी लोग सिर्फ इसे देख सकते हैं। इस आरती को देखने के लिए पुरुषों को केवल धोती पहननी होती है जबकि महिलाओं को आरती के समय घूंघट करना पड़ता है। माना जाता है कि उस वक्त भगवान शिव निराकार स्वरूप में होते हैं और महिलाओं को भगवान के इस स्वरूप के दर्शन करने की अनुमति नहीं होती है।
हर साल सावन महीने के सभी सोमवार और भादौ महीने के एक पक्ष के सोमवार को महाकाल की सवारी निकलती है। महाकाल की प्रतिमा को चांदी की पालकी में विराजित किया जाता है, इसके बाद बाबा की पालकी को शिप्रा नदी के घाट पर ले जाते हैं और वहां से उज्जैन का भ्रमण करते हुए भगवान अपने मंदिर लौट आते हैं। भादौ महीने की अंतिम सवारी को शाही सवारी कहा जाता है।
बड़े गणेश जी का मंदिर
गणपति बप्पा का यह अनोखा मंदिर उज्जैन के प्रसिद्ध महाकालेश्वर मंदिर के पास स्थित है। इस मंदिर में भगवान गणेश की एक विशाल प्रतिमा है। ये मूर्ति सीमेंट से नहीं बल्कि इसमें गुड़ और मेथी दानों का प्रयोग किया गया है। साथ ही इस मूर्ति के निर्माण में ईंट, चूने, बालू और रेत का प्रयोग किया गया है। जानकारी के अनुसार इस मंदिर में स्थापित गणेश प्रतिमा की स्थापना महर्षि गुरु महाराज सिधांत वागेश पंडित नारायण व्यास ने करवाई थी।
हरसिद्धि माता मंदिर
उज्जैन में माता हरसिद्धि का प्राचीन मंदिर है,जो माता के 51 शक्तिपीठों में से एक है। मान्यता है कि इस स्थान पर देवी सती की कोहनी गिरी थी। और यहां पर पूजा अर्चना करने से सभी मनोकामना पूरी होती है।हरसिद्धि माता मंदिर की एक महत्वपूर्ण खासियत यहां की दीप मालाएं हैं, जो कि 2000 साल पुरानी हैं। हरसिद्धि माता मंदिर के बाहर 1011 दीप माला हैं जो 51 फीट ऊंची हैं।
उज्जैन के कालीघाट स्थित कालिका माता के प्राचीन मंदिर को गढ़ कालिका के नाम से जाना जाता है। मंदिर की स्थापना महाभारतकाल की मानी जाती है, लेकिन मान्यता है कि माता की चमत्कारी प्रतिमा सतयुग के काल की है। गढ़कालिका के मंदिर में मां कालिका के दर्शन के लिए रोज हजारों भक्त आते हैं। मंदिर परिसर मे अतिप्राचीन दीपस्तंभ है। इस दीपस्तंभ में 108 दीप विद्यमान है, जिनको नवरात्रि के दौरान रोशन किया जाता है।
अमृत मंथन के दौरान शिप्रा नदी के रामघाट के समीप स्थित सुंदर कुंड में अमृत की बूंदें गिरी थीं, इसलिए शिप्रा नदी का महत्व और भी बढ़ जाता है। 14 साल के वनवास के दौरान भगवान श्री राम और सीता ने शिप्रा तट के किनारे पूर्वजों का श्राद्ध और तर्पण किया था। जिसके बाद शिप्रा नदी का ये घाट रामघाट के नाम से जाना जाता है। राम घाट का हिंदुओं के लिए अत्यधिक धार्मिक महत्व है क्योंकि यह उन चार स्थानों में से एक है जहां हर 12 साल में कुंभ मेला लगता है।
शिप्रा नदी के तट पर सांदीपनि आश्रम स्थित है। माना जाता है कि यह वह आश्रम है जहां गुरु सांदीपनि ने भगवान कृष्ण, उनके मित्र सुदामा और भाई बलराम को शिक्षा दी थी। आश्रम में भगवान श्रीकृष्ण, बलराम और सुदामा की बैठी हुई बाल रूप की प्रतिमा स्थापित है। कहते हैं कि भगवान श्री कृष्ण ने यहां 64 विद्याएं और 16 कलाओं का ज्ञान लिया था।
यह मंदिर उज्जैन में भगवान गणेश को समर्पित है। चिंतामन गणेश मंदिर में भगवान श्री गणेश के तीन रूप एक साथ विराजमान है, जो चितांमण गणेश, इच्छामण गणेश और सिद्धिविनायक के रूप में जाने जाते है। चिंतामणी गणेश चिंताओं को दूर करते हैं, इच्छामणी गणेश इच्छाओं को पूर्ण करते हैं और सिद्धिविनायक रिद्धि-सिद्धि देते हैं। देश के कोने-कोने से भक्त यहां दर्शन करने आते है। यहां पर भक्त, गणेश जी के दर्शन कर मंदिर के पीछे उल्टा स्वास्तिक बनाकर मनोकामना मांगते है और जब उनकी मनोकामना पूर्ण हो जाती है तो वह पुनः दर्शन करने आते है और मंदिर के पीछे सीधा स्वास्तिक बनाता है। कई भक्त यहां रक्षा सूत्र बांधते है और मनोकामना पूर्ण होने पर रक्षा सूत्र छोडने आते है।
गोपाल मंदिर को द्वारकाधीश मंदिर के रूप में भी जाना जाता है, महाकालेश्वर मंदिर के बाद यह शहर का दूसरा सबसे बड़ा मंदिर है। मंदिर का निर्माण दौलतराव सिंधिया की पत्नी वायजा बाई द्वारा करवाया गया था। 'द्वारकाधीश गोपाल मंदिर' लगभग दो सौ वर्ष पुराना बताया जाता है। इस मंदिर में चांदी से मढ़ी भगवान कृष्ण की दो फुट ऊंची संगमरमर की मूर्ति है।
यह शहर के संरक्षक देवता काल भैरव को समर्पित है। ऐसा माना जाता है कि अगर महाकालेश्वर के दर्शन के बाद कालभैरव के दर्शन न किए जाए, तो आपकी यात्रा अधूरी रह जाती है। यहां ऐसी परांपरा है कि लोग भगवान काल भैरव को प्रसाद को रुप में केवल शराब ही चढ़ाते हैं।
महाकालेश्वर मंदिर कैसे पहुंचें
महाकालेश्वर मंदिर का निकटतम प्रमुख हवाई अड्डा इंदौर में देवी अहिल्या बाई होल्कर हवाई अड्डा है, जो लगभग 55 किलोमीटर दूर है। इंदौर हवाई अड्डा दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बेंगलुरु और अन्य सहित भारत के प्रमुख शहरों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। इंदौर हवाई अड्डे पर उतरने के बाद टैक्सी या कैब किराए पर ले सकते हैं। उज्जैन पहुंचने के लिए इंदौर बस स्टेशन से बस ले सकते हैं। बस यात्रा में आमतौर पर लगभग 2 घंटे लगते हैं।
उज्जैन अपने रेलवे स्टेशन उज्जैन जंक्शन के माध्यम से भारत भर के विभिन्न शहरों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। यह दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, जयपुर और अहमदाबाद जैसे सभी प्रमुख शहरों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। रेलवे स्टेशन से लगभग 2 किलोमीटर दूर स्थित महाकालेश्वर मंदिर तक पहुँचने के लिए यात्री आसानी से ऑटो-रिक्शा, साइकिल-रिक्शा और टैक्सी जैसे स्थानीय परिवहन ले सकते हैं।