बृहस्पतिवार यानि गुरुवार का दिन भगवान विष्णु को समर्पित है। इस दिन भगवान् बृहस्पतिदेव की पूजा-अर्चना, व्रत करके, बृहस्पतिवार की व्रत-कथा को पढ़ने अथवा किसी दूसरे के द्वारा सुनने से स्त्री-पुरुषों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। गुरु बृहस्पति और भगवान विष्णु की कृपा से उनकी सभी परेशानियां दूर हो जाती हैं।
ऐसी मान्यता है कि इस व्रत का पालन करने से जीवन के सभी कष्टों से मुक्ति मिलती है। निःसंतानों को पुत्र-प्राप्ति होती है। परिवार में सुख-शांति बनी रहती है। सभी आनन्दपूर्वक रहते हैं। इसके साथ ही कुंडली में गुरु ग्रह मजबूत हो जाता है। कहा जाता है कि गुरूवार के दिन व्रत करने से भगवान विष्णु के साथ माता लक्ष्मी की कृपा भी प्राप्त होती है।
गुरुवार का व्रत पौष माह में नहीं रखना चाहिए। इसे किसी भी माह के शुक्ल पक्ष के प्रथम गुरुवार को रख सकते है। भगवान विष्णु और बृहस्पति देव की कृपा पाने के लिए लगातार 16 गुरुवार का व्रत रखना चाहिए और 17वें गुरुवार को व्रत का उद्यापन करना चाहिए । गुरुवार का व्रत 1, 3, 5, 7, 9, 11 साल या आजीवन रख सकते हैं।
गुरुवार का व्रत बहुत फलदायी माना जाता है। इस दिन भगवान विष्णुजी की पूजा होती है। गुरुवार का व्रत रखने से पितृ दोष खत्म होता है। इस व्रत से घर में सुख-शांति आती है। इस व्रत से वैवाहिक जीवन की समस्याएं दूर होती हैं। अगर आपकी कुंडली में अल्पायु का योग है तो वह समाप्त हो जाता है।
इस व्रत से माता लक्ष्मी और भगवान विष्णु का आशीर्वाद मिलता है। इससे घर की दरिद्रता दूर होती है और धन आता है। इस व्रत से कुंडली के अशुभ ग्रहों का असर खत्म होता है। गुरुवार का व्रत रखने से व्यक्ति का मान-सम्मान बढ़ता है। गुरुवार के दिन व्रत रखने से कुंडली में गुरु की स्थिति मजबूत होती है। गुरुवार व्रत करने से सही निर्णय क्षमता, ज्ञान और बुद्धि से गुरु दोष से मुक्ति मिलती है
बृहस्पतिवार के दिन प्रात:काल जल्दी उठकर स्नानादि कर लें और पीले रंग के स्वच्छ वस्त्र धारण करें। इसके बाद भगवान का ध्यान करते हुए व्रत का संकल्प करें। बृहस्पतिदेव और विष्णुजी की पूजा व ध्यान करना चाहिए। इसके बाद बृहस्पति देव के समक्ष या केले के वृक्ष में शुद्ध घी का दीपक प्रज्वलित करें। फिर भगवान को हल्दी या फिर चंदन का तिलक करें और धूपबत्ती जलाएं।
इसके बाद फल, फूल, पीले वस्त्रों से भगवान बृहस्पति देव और विष्णुजी की पूजा करनी चाहिए अब मुनक्का, चने की दाल पीले फूल और गुड़ अर्पित करें। इसके बाद शाम के समय पुनः पूजा करें इस दिन केले के वृक्ष का पूजन किया जाता है, इसलिए केले का सेवन नहीं करना चाहिए। हाथ में थोड़ी सी चने की दाल और फूलों को अपने हाथों में लेकर बृहस्पतिवार के व्रत की कथा पढ़ें।
कथा पूर्ण होने के बाद आरती करें। प्रसाद के रूप में केले चढ़ाना शुभ माना जाता है लेकिन इन केलों को दान में ही दे देना चाहिए। इस दिन आप प्रसाद में बेसन के लड्डू भी चढ़ा सकते हैं। पूजन के बाद बिना नमक का भोजन करके व्रत पारण करें।
प्राचीन समय की बात है। भारत में एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा प्रतापी तथा दानी था। वह नित्यप्रति मन्दिर में भगवद्दर्शन करने जाता था। वह ब्राह्मण और गुरु की सेवा किया करता था। उसके द्वार से कोई भी याचक निराश होकर नहीं लौटता था। वह प्रत्येक गुरुवार को व्रत रखता एवं पूजन करता था। हर दिन गरीबों की सहायता करता था। परन्तु यह सब बातें उसकी रानी को अच्छी नहीं लगती थीं, वह न व्रत करती और न किसी को एक भी पैसा दान में देती थी। वह राजा से भी ऐसा करने को मना किया करती थी।
एक समय की बात है कि राजा शिकार खेलने वन को चले गए। घर पर रानी और दासी थीं। उस समय गुरु बृहस्पति साधु का रूप धारण कर राजा के दरवाजे पर भिक्षा माँगने आए। साधु ने रानी से भिक्षा माँगी तो वह कहने लगी- "हे साधु महाराज ! मैं इस दान और पुण्य से तंग आ गई हूँ। इस कार्य के लिए तो मेरे पतिदेव ही बहुत हैं। अब आप ऐसी कृपा करें कि सारा धन नष्ट हो जाए तथा मैं आराम से रह सकूँ।"
साधु रूपी बृहस्पतिदेव ने कहा- "हे देवी! तुम बड़ी विचित्र हो । सन्तान और धन से कोई दुखी नहीं होता है, इसको सभी चाहते हैं। पापी भी पुत्र और धन की इच्छा करता है। अगर तुम्हारे पास धन अधिक हैं तो भूखे मनुष्यों को भोजन कराओ, प्याऊ लगवाओ, ब्राह्मणों को दान दो, धर्मशालाएँ बनवाओ, कुआँ-तालाब, बावड़ी बाग-बगीचे आदि का निर्माण कराओ तथा निर्धनों की कुंआरी कन्याओं का विवाह कराओ, साथ ही यज्ञादि करो।
इस प्रकार के कर्मों से आपके कुल का और आपका नाम परलोक में सार्थक होगा एवं स्वर्ग की प्राप्ति होगी।" परन्तु रानी साधु की इन बातों से खुश नहीं हुई। उसने कहा- "हे साधु महाराज ! मुझे ऐसे धन की आवश्यकता नहीं जिसको मैं अन्य लोगों को दान दूँ तथा जिसको रखने और सम्हालने में ही मेरा सारा समय नष्ट हो जाए।"
साधु ने कहा- "हे देवी ! यदि तुम्हारी ऐसी ही इच्छा है तो जैसा मैं तुम्हें बताता हूँ तुम वैसा ही करना । बृहस्पतिवार के दिन घर को गोबर से लीपना, अपने केशों को पीली मिट्टी से धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, राजा से कहना वह हजामत करवाए, भोजन में मांस-मदिरा खाना, कपड़ा धोबी के यहाँ धुलने देना । इस प्रकार सात बृहस्पतिवार करने से तुम्हारा धन नष्ट हो जाएगा।" यह कहकर साधु महाराज रूपी बृहस्पतिदेव अन्तर्धान हो गए ।
रानी ने साधु के कहने के अनुसार सात बृहस्पतिवार तक वैसा ही करने का विचार किया। साधु के बताए अनुसार कार्य करते हुए केवल तीन बृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसकी समस्त धन सम्पत्ति नष्ट हो गई। भोजन के लिए दोनों समय परिवार तरसने लगा तथा सांसारिक भोगों से दुःखी रहने लगा। तब वह राजा रानी से कहने लगा कि हे रानी! तुम यहाँ पर रहो, मैं दूसरे देश को जाता हूँ। क्योंकि यहाँ पर मुझे सभी मनुष्य जानते हैं। इसलिए में यहाँ कोई कार्य नहीं कर सकता। मैं अब परदेश जा रहा हूँ। वहाँ कोई काम-धन्धा करूंगा। शायद हमारे भाग्य बदल जाएँ।
ऐसा कहकर राजा परदेस चला गया। वह वहाँ जंगल से लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेचता । इस तरह जीवन व्यतीत करने लगा । इधर राजा के बिना रानी और दासियां दुःखी रहने लगीं, किसी दिन भोजन मिलता और किसी दिन जल पीकर ही रह जातीं। एक समय रानी और दासियों को सात दिन बिना भोजन के व्यतीत करना पड़ा। तो रानी ने अपनी दासी से कहा- "हे दासी! यहाँ पास ही के नगर में मेरी बहन रहती है।
वह बड़ी धनवान है। तू उसके पास जा और वहाँ से पाँच सेर बेझर माँगकर ले आ, जिससे कुछ समय के लिए गुजर हो जाएगा ।" दासी रानी की बहन के पास गई। रानी की बहन उस समय पूजा कर रही थी। बृहस्पतिवार का दिन था। दासी ने रानी की बहन से कहा- "हे रानी। मुझे आपकी बहन ने भेजा है। मुझे पांच सेर बेझर दे दो।" दासी ने यह बात अनेक बार कही, परन्तु रानी की बहन ने कोई उत्तर नहीं दिया, क्योंकि वह उस समय बृहस्पतिवार की कथा सुन रही थी।
जब दासी को रानी की बहन से कोई उत्तर नहीं मिला तो वह बहुत दुःखी हुई। उसे क्रोध भी आया । वह लौटकर रानी से बोली- "हे रानी! आपकी बहन बहुत ही धनी स्त्री है। वह छोटे लोगों से बात भी नहीं करती । मैंने उससे कहा तो उसने कोई उत्तर नहीं दिया। मैं वापस चली आई।" रानी बोली- "हे दासी ! इसमें उसका कोई दोष नहीं है। जब बुरे दिन आते हैं तब कोई सहारा नहीं देता। अच्छे-बुरे का पता विपत्ति में ही लगता है। जो ईश्वर की इच्छा होगी वही होगा। यह सब हमारे भाग्य का दोष है।"
उधर रानी की बहन ने सोचा कि मेरी बहन की दासी आई थी, परन्तु मैं उससे नहीं बोली । इससे वह बहुत दुःखी हुई होगी। अतः कथा सुन और विष्णु भगवान् का पूजन समाप्त कर वह अपनी बहन के घर आई और कहने लगी- "हे बहन ! ! मैं बृहस्पतिवार का व्रत कर रही थी थी। तुम्हारी दासी हमारे घर गई थी, परन्तु जब तक कथा होती है तब तक हम लोग न उठते हैं और न बोलते हैं, इसलिए मैं नहीं बोली। कहो, दासी क्यों गई थी ?" रानी बोली- "बहन ! हमारे घर अनाज नहीं था। वैसे तुमसे कोई बात छिपी नहीं है। इस कारण मैंने दासी को तुम्हारे पास पाँच सेर बेझर लेने के लिए भेजा था।"
रानी की बहन बोली- "बहन, देखो ! बृहस्पति भगवान् सबकी मनोकामना पूर्ण करते हैं। देखो, शायद तुमारे घर में अनाज रखा हो।" यह सुनकर दासी घर के अन्दर गई तो वहाँ उसे एक घड़ा बेझर का भरा मिल गया। उसे बड़ी हैरानी हुई, क्योंकि उसने एक-एक बर्तन देख लिया था। उसने बाहर आकर रानी को बताया। दासी अपनी रानी से कहने लगी- "हे रानी! देखो, वैसे हमको जब अन्न नहीं मिलता तो हम रोज ही व्रत करते हैं। अगर इनसे व्रत की विधि और कथा पूछ ली जाए तो उसे हम भी किया करेंगे।"
दासी के कहने पर रानी ने अपनी बहन से बृहस्पतिवार व्रत के बारे में पूछा। उसकी बहन ने बताया- "हे रानी बहन ! बृहस्पतिवार को सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान करके बृहस्पतिवार का व्रत करना चाहिए। लेकिन उस दिन सिर नहीं धोना चाहिए। बृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्का से विष्णु भगवान् का केले के वृक्ष की जड़ में पूजन करे तथा दीपक जलावे। उस दिन एक ही समय भोजन करे। भोजन पीले खाद्य पदार्थ का कर तथा कथा सुने । इस प्रकार करने से गुरु भगवान् प्रसन्न होते हैं। अन्न, पुत्र, धन देते हैं। मनोकामना पूर्ण करते हैं।" व्रत और पूजन की विधि बताकर रानी की बहन अपने घर लौट गई।
रानी और दासी दोनों ने निश्चय किया कि बृहस्पति देव भगवान् का पूजन जरूर करेंगे। सात दिन बाद जब बृहस्पतिवार आया तो उन्होंने व्रत रखा। घुड़साल में जाकर चना और गुड़ बीन लाई तथा उसकी दाल से केले की जड़ तथा विष्णु भगवान् का पूजन किया । अब भोजन पीला कहाँ से आए ! दोनों बड़ी दुःखी हुई परन्तु उन्होंने व्रत किया था इस कारण बृहस्पतिदेव भगवान् प्रसन्न थे। एक साधारण व्यक्ति के रूप में वे दो थालों में सुन्दर पीला भोजन लेकर आए और दासी को देकर बोले- "हे दासी। यह भोजन तुम्हारे और रानी के लिए है, तुम दोनों करना।"
दासी भोजन पाकर बड़ी प्रसन्न हुई और रानी से बोली "रानी जी, भोजन कर लो।" रानी को भोजन आने के बारे में कुछ पता नहीं था इसलिए वह दासी से बोली- "जा, तू ही भोजन कर क्योंकि तू हमारी व्यर्थ में हँसी उड़ाती है।" दासी बोली- "एक व्यक्ति भोजन दे गया है।" रानी कहने लगी "वह भोजन तेरे ही लिए दे गया है, तू ही भोजन कर।" दासी ने कहा- "वह व्यक्ति हम दोनों के लिए दो थालों में भोजन दे गया है। इसलिए मैं और आप दोनों ही साथ-साथ भोजन करेंगी।" दोनों ने गुरु भगवान् को नमस्कार कर भोजन प्रारम्भ किया।
उसके बाद से वे प्रत्येक बृहस्पतिवार को गुरु भगवान् का व्रत और पूजन करने लगीं। बृहस्पति भगवान् की कृपा से उनके पास धन हो गया। परन्तु रानी फिर पहले की तरह से आलस्य करने लगी। तब दासी बोली- "देखो रानी ! तुम पहले भी इस प्रकार आलस्य करती थीं, तुम्हें धन के रखने में कष्ट होता था, इस कारण सभी धन नष्ट हो गया। अब गुरु भगवान् की कृपा से धन मिला है तो फिर तुम्हें आलस्य होता है? बड़ी मुसीबतों के बाद हमने यह धन पाया है।
इसलिए हमें दान-पुण्य करना चाहिए। तुम भूखे मनुष्यों को भोजन कराओ, प्याऊ लगवाओ, ब्राह्मणों को दान दो, कुआँ तालाब बावड़ी आदि का निर्माण करवाओ, मन्दिर पाठशाला बनवाकर दान दो, कुंवारी कन्याओं का विवाह करवाओ, धन को शुभ कार्यों में खर्च करो, जिससे तुम्हारे कुल का यश बढ़े तथा स्वर्ग प्राप्त हो और पितृ प्रसन्न हों ।" दासी की बात मानकर रानी ने इसी प्रकार के कर्म करने प्रारम्भ किए, जिससे उनका काफी यश फैलने लगा ।
एक दिन रानी और दासी आपस में विचार करने लगीं कि न जाने राजा किस दशा में होंगे, उनकी कोई खोज-खबर नहीं है। गुरु भगवान् से उन्होंने प्रार्थना की और भगवान् ने रात्रि में राजा को स्वप्न में कहा- "हे राजा, उठ ! तेरी रानी तुझको याद करती है। अब अपने देश को लौट जा।" राजा प्रातःकाल उठकर, जंगल से लकड़ियाँ काटकर लाने के लिए जंगल की ओर चल पड़ा।
जंगल से गुजरते हुए वह सोचने लगा-रानी की गलती से उसे कितने दुःख भोगने पड़े ! ! राजपाट छोड़कर उसे जंगल में आकर रहना पड़ा। जंगल से लकड़ियाँ काट कर उन्हें बेचकर गुजारा करना पड़ा। उसी समय उस जंगल में बृहस्पतिदेव एक साधु का रूप धारण कर आए और राजा के पास आकर बोले- "हे लकड़हारे ! तुम इस सुनसान जंगल में किस चिन्ता में बैठे हो, मुझे बतलाओ ?" यह सुन राजा के नेत्रों में जल भर आया और साधु की वन्दना कर बोला- "हे प्रभो! आप सब कुछ जाननेवाले हैं। इतना कहकर राजा ने साधु को अपनी सम्पूर्ण कहानी सुना दी।
महात्मा दयालु होते हैं। वे राजा से बोले- "हे राजा! तुम्हारी पत्नी ने बृहस्पतिदेव के प्रति अपराध किया था जिसके कारण तुम्हारी यह दशा हुई। अब तुम किसी प्रकार की चिन्ता मत करो। भगवान् तुम्हें पहले से अधिक धन देंगे। देखो, तुम्हारी पत्नी ने बृहस्पतिवार का व्रत प्रारम्भ कर दिया है। अब तुम भी बृहस्पतिवार का व्रत करके चने की दाल व गुड़ जल के लोटे में डालकर केले का पूजन करो।
फिर कथा कहो या सुनो! भगवान् तुम्हारी सब कामनाओं को पूर्ण करेंगे।" साधु को प्रसन्न देखकर राजा बोला- "हे प्रभो ! मुझे लकड़ी बेचकर इतना पैसा भी नहीं बचता जिससे भोजन करने के उपरान्त कुछ बचा सकूँ। मैंने रात्रि में अपनी रानी को व्याकुल देखा है। मेरे पास कोई साधन नहीं जिससे समाचार जान सकूँ। फिर मैं बृहस्पतिदेव की क्या कहानी कहूँ। मुझको तो कुछ भी मालूम नहीं है।"
साधु ने कहा- "हे राजा ! तुम किसी बात की चिन्ता मत करो। बृहस्पतिवार के दिन तुम रोजाना की तरह लकड़ियों लेकर शहर में जाओ। तुम्हें रोज से दुगना धन प्राप्त होगा, जिससे तुम भलीभाँति भोजन कर लोगे तथा बृहस्पतिदेव की पूजा का सामान भी आ जाएगा।" बृहस्पतिदेव की कथा इस प्रकार है-
प्राचीनकाल में एक बहुत ही निर्धन ब्राह्मण था। उसके कोई सन्तान नहीं थी। वह नित्य पूजा-पाठ करता, परन्तु उसकी स्त्री बहुत मलिनता के साथ रहती थी। वह न स्नान करती और न किसी देवता का पूजन करती । प्रातःकाल उठते ही सर्वप्रथम भोजन करती, बाद में कोई अन्य कार्य करती। ब्राह्मण देवता बहुत दुःखी रहते थे । पत्नी को बहुत समझाते, किन्तु उसका कोई परिणाम न निकलता ।
भगवान् की कृपा से ब्राह्मण की स्त्री के कन्या उत्पन्न हुई। वह कन्या अपने पिता के घर में बड़ी होने लगी । वह बालिका प्रातः स्नान करके भगवान् विष्णु का जप करती। वह बचपन से ही बृहस्पतिवार का व्रत भी करने लगी । पूजा-पाठ समाप्त कर स्कूल जाती तो अपनी अपन मुट्ठी में जौ भरकर ले जाती और पाठशाला जाने के मार्ग में डालती जाती। वही जौ स्वर्ण के हो जाते तो लौटते समय उनको बीनकर घर ले आती।
एक दिन वह बालिका सूप में उन सोने के जौ को फटककर साफ कर रही थी तभी उसकी माँ ने देख लिया और कहा- "हे बेटी ! सोने के जौ को फटकने के लिए सोने का सूप होना चाहिए।" दूसरे दिन गुरुवार था। इस कन्या ने व्रत रखा और बृहस्पतिदेव से प्रार्थना करके कहा- "हे प्रभो । यदि मैंने सच्चे मन से आपकी पूजा की हो तो मुझे सोने का सूप दे दो।" बृहस्पतिदेव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। रोजाना की तरह वह कन्या जौ फैलाती हुई स्कूल चली गई। स्कूल से लौटकर जब वह जौ बीन रही थी तो बृहस्पतिदेव की कृपा से उसे सोने का सूप मिला। उसे वह घर ले आई और उससे जौ साफ करने लगी। परन्तु उसकी माँ का वही ढंग रहा ।
एक दिन की बात है, वह कन्या सोने के सूप में जौ साफ कर रही थी। उस समय उस नगर का राजकुमार वहाँ से होकर निकला। इस कन्या के रूप और सोने के सूप में जौ को साफ करते देखकर वह उस कन्या पर मोहित हो गया । राजमहल आकर वह भोजन तथा जल त्यागकर उदास होकर लेट गया। राजा को जब राजकुमार द्वारा अन्न-जल त्यागने का समाचार ज्ञात हुआ तो अपने मन्त्रियों के साथ वह अपने पुत्र के पास गए और बोले- "हे बेटा ! तुम्हें किस बात का कष्ट है ? किसी ने अपमान किया है अथवा कोई और कारण है ? मुझे बताओ, मैं वही करूंगा जिससे तुम्हें प्रसन्नता हो ।"
राजकुमार ने अपने पिता की बातें सुनीं तो वह बोला- "मुझे आपकी कृपा से किसी बात का दुःख नहीं है, किसी ने मेरा अपमान नहीं किया है। परन्तु मैं उस लड़की के साथ विवाह करना चाहता हूँ जो सोने के सूप में जौ साफ कर रही थी ।" यह सुन राजा आश्चर्य में पड़ गया और बोला- "हे बेटा इस तरह की कन्या का पता तुम्हीं लगाओ । मैं उसके साथ तुम्हारा विवाह अवश्य ही करवा दूँगा ।" राजकुमार ने राजा को उस लड़की के घर का पता बतलाया। मंत्री उस लड़की के घर गया और राजा का आदेश ब्राह्मण को सुनाया।
कुछ ही दिन बाद ब्राह्मण की कन्या का विवाह राजकुमार के साथ सम्पन्न हो गया । कन्या के घर से जाते ही उस ब्राह्मण देवता के घर में पहले की भाँति गरीबी का निवास हो गया। अब भोजन के लिए भी अन्न बड़ी मुश्किल से मिलता था। एक दिन दुःखी होकर ब्राह्मण अपनी पुत्री से मिलने गया। बेटी ने पिता की दुःख की अवस्था को देखा और अपनी माँ का समाचार पूछा। ब्राह्मण ने सभी हाल कहा । कन्या ने बहुत-सा धन देकर अपने पिता को विदा कर दिया।
इस तरह ब्राह्मण का कुछ समय सुखपूर्वक व्यतीत हुआ । लेकिन कुछ दिन बाद फिर वही हाल हो गया । ब्राह्मण फिर अपनी कन्या के यहाँ गया और सभी हाल कहा तो पुत्री बोली- "हे पिताजी ! आप माताजी को यहाँ लिवा लाओ। मैं उन्हें वह विधि बता दूँगी जिससे गरीबी दूर हो जाए ।" ब्राह्मण देवता अपनी स्त्री को साथ लेकर अपनी पुत्री के पास राजमहल पहुँचे तो पुत्री अपनी माँ को समझाने लगी - "हे माँ ! तुम प्रातःकाल उठकर प्रथम स्नानादि करके विष्णु भगवान् का पूजन करो तो सब दरिद्रता दूर हो जाएगी।" परन्तु उसकी माँ ने उसकी एक बात नहीं मानी। वह प्रातःकाल उठकर अपनी पुत्री का बचा जूठन खा लेती थी ।
एक दिन उसकी पुत्री को बहुत गुस्सा आया। उसने एक रात एक कोठरी से सारा सामान निकाल दिया और अपनी माँ को उसमें बन्द कर दिया। प्रातः उसमें से उसे निकाला तथा स्नानादि कराके पूजा-पाठ करवाया तो उसकी माँ की बुद्धि ठीक हो गई। इसके बाद वह नियम से पूजा-पाठ करती और प्रत्येक बृहस्पतिवार को बत रखने लगी। इस व्रत के प्रभाव से उसकी माँ भी बहुत धनवान हो गई और बृहस्पति देवता के के प्रभाव से स्वर्ग को गई। वह ब्राह्मण भी सुखपूर्वक इस लोक का सुख भोगकर स्वर्ग को प्राप्त हुआ। इस तरह कहानी कहकर साधु देवता वहाँ से लोप हो गए।
धीरे-धीरे समय व्यतीत होने पर फिर बृहस्पतिवार का दिन आया। राजा जंगल से लकड़ी काटकर किसी शहर में बेचने गया। उसे उस दिन और दिनों से अधिक धन मिला। राजा ने चना, गुड़ आदि लाकर बृहस्पतिवार का व्रत किया। उस दिन से उसके सभी क्लेश दूर हुए। परन्तु जब अगला गुरुवार का दिन आया तो वह बृहस्पतिवार का व्रत करना भूल गया। इस कारण बृहस्पति भगवान् नाराज हो गए। उस दिन उस नगर के राजा ने विशाल यज का आयोजन किया तथा अपने समस्त राज्य में घोषणा करवा दी कि कि 'कोई भी मनुष्य अपने घर में भोजन न बनाए तथा आग भी न जलाए ।
समस्त लोग मेरे यहाँ भोजन करने आवें। इस आज्ञा को जो न मानेगा उसको फाँसी की सजा दी जाएगी। राजा की आज्ञानुसार राज्य के सभी वासी राजा के भोज में सम्मिलित हुए लेकिन लकड़हारा कुछ देर से पहुँचा, इसलिए राजा उसको अपने साथ महल में ले गए। जब राजा लकड़हारे को भोजन करा रहे थे तो रानी की दृष्टि उस खूँटी पर पड़ी जिस पर उसका हार लटका हुआ था। उसे हार खूंटी पर लटका दिखाई नहीं दिया । रानी को निश्चय हो गया कि मेरा हार इसी लकड़हारे ने चुरा लिया है।
उसी समय सैनिक बुलवाकर उसको जेल में डलवा दिया। जब लकड़हारा जेलखाने में गया तो बहुत दुःखी होकर विचार करने लगा कि न जाने कौन-से पूर्वजन्म के कर्म से मुझे यह दुःख प्राप्त हुआ है। और उसी साधु को याद करने लगा जो जंगल में मिला था । तत्काल बृहस्पतिदेव साधु के रूप में प्रगट हो गए और उसकी दशा को देखकर कहने लगे- "अरे मूर्ख । तूने बृहस्पति देवता की कथा नहीं कही इसी कारण तुझे दुःख प्राप्त हुआ है। अब चिन्ता मत कर ।
बृहस्पतिवार के दिन जेलखाने के दरवाजे पर चार पैसे पड़े मिलेंगे उनसे तू बृहस्पतिदेव की पूजा करना तो तेरे सभी कष्ट दूर हो जाएँगे।" अगले बृहस्पतिवार उसे जेल के द्वार पर चार पैसे मिले। राजा ने पूजा का सामान मंगवाकर कथा कही और प्रसाद बाँटा । उसी रात्रि को बृहस्पतिदेव ने उस नगर के राजा को स्वप्न में कहा- "हे राजा! तूने जिस आदमी को जेलखाने में बन्द कर दिया है वह निर्दोष है। वह राजा है उसे छोड़ देना। रानी का हार उसी खूँटी पर लटका हुआ है। अगर तू ऐसा नहीं करेगा तो मैं तेरे राज्य को नष्ट कर दूंगा।" राजा प्रातःकाल उठा और खूँटी पर हार टंगा देखकर लकड़हारे को बुलाकर क्षमा माँगी तथा राजा के योग्य सुन्दर वस्व-आभूषण भेंट कर उसे विदा किया ।
गुरुदेव की आज्ञानुसार राजा अपने नगर को चल दिया। राजा जब नगर के निकट पहुंचा तो उसे बड़ा ही आश्चर्य हुआ । नगर में पहले से अधिक बाग, तालाब और कुएँ तथा बहुत-सी धर्मशालाएँ, मन्दिर आदि बने हुए थे। राजा ने पूछा कि 'यह किसका बाग और धर्मशाला है ?' तब नगर के सब लोग कहने लगे कि 'यह सब रानी और दासी द्वारा बनवाए गए हैं।' राजा को आश्चर्य हुआ और गुस्सा भी आया। जब रानी ने खबर सुनी कि राजा आ रहे हैं तो उसने अपनी दासी से कहा- "हे दासी देख, राजा हमको कितनी बुरी हालत में छोड़ गए थे।
वह हमारी ऐसी हालत देखकर लौट न जाएं इसलिए तू दरवाजे पर खड़ी हो जा।" रानी की आज्ञानुसार दासी दरवाजे पर खड़ी हो गई। जब राजा आए तो उन्हें अपने साथ महल में लिवा लाई। तब राजा ने क्रोध करके अपनी तलवार निकाली और पूछने लगा "बताओ। यह धन तुम्हें कैसे प्राप्त हुआ है ?" तब रानी ने बताया- "हमें यह सब धन बृहस्पतिदेव के व्रत के प्रभाव से प्राप्त हुआ है ।" राजा ने तब निश्चय किया कि सात रोज बाद तो सभी बृहस्पतिदेव का पूजन करते हैं, परन्तु मैं रोजाना दिन में तीन बार कथा कहा करूंगा तथा रोज व्रत किया करूंगा । अब हर समय राजा के दुपट्टे में चने की दाल बंधी रहती तथा दिन में तीन बार कथा कहता ।
एक रोज राजा ने बिचार किया कि चलो अपनी बहन के यहाँ हो आवें। इस तरह का निश्चय कर राजा घोड़े पर सवार हो अपनी बहन के यहाँ चल दिया। मार्ग में उसने देखा कि कुछ आदमी एक मुर्दे को लिये जा रहे हैं। उन्हें रोककर राजा कहने लगा- "अरे भाइयो ! मेरी बृहस्पतिवार की कथा सुन लो।" वे बोले, 'लो हमारा तो आदमी मर गया है, इसको अपनी कथा की पड़ी है।' परन्तु कुछ आदमी बोले- "अच्छा कहो, हम तुम्हारी कथा भी सुनेगे। राजा ने दाल निकाली और कथा कहनी शुरू कर दी। जब कथा आधी हुई तो मुर्दा हिलने लगा और जब कथा समाप्त हुई तो राम-राम करते हुए वह मुर्दा खड़ा हो गया ।
राजा आगे बढ़ा। उसे चलते-चलते शाम हो गई। आगे मार्ग में उसे एक किसान खेत में हल चलाता मिला। राजा उससे बोला- "अरे भइया ! तुम मेरी बृहस्पतिवार की कथा सुन लो।" किसान बोला- "जब तक मैं तेरी कथा सुनूंगा तब तक चार हरैया जोत लूँगा। जा अपनी कथा किसी और को सुनाना।" राजा आगे चलने लगा । राजा के हटते ही बैल पछाड़ खाकर गिर गए तथा किसान के पेट में बहुत जोर से दर्द होने लगा। उसी समय किसान की माँ रोटी लेकर आई। उसने जब यह देखा तो अपने पुत्र से सब हाल पूछा। बेटे ने सभी हाल बता दिया।
बुढ़िया दौड़ी-दौड़ी उस घुड़सवार के पास गई और उससे बोली- "मैं तेरी कथा सुनूँगी। तू अपनी कथा मेरे खेत पर ही चलकर कहना।" राजा ने लौटकर बुढ़िया के खेत पर जाकर कथा कही, जिसके सुनते ही बैल खड़े हो गए तथा किसान के पेट का दर्द भी बन्द हो गया। राजा अपनी बहन के घर पहुँच गया। बहन ने भाई की खूब मेहमानी की। दूसरे रोज प्रातःकाल राजा जागा तो वह देखने लगा कि सब लोग भोजन कर रहे हैं।
राजा ने अपनी बहन से जब पूछा कि 'ऐसा कोई मनुष्य है जिसने भोजन नहीं किया हो, जो मेरी बृहस्पतिवार की कथा सुन ले' तो बहन बोली- "हे भैया! यह देश ऐसा ही है। पहले यहाँ के लोग भोजन करते हैं, बाद में अन्य काम करते हैं। अगर पड़ोस में कोई हो तो देख आती हूँ।" ऐसा कहकर बहन देखने चली, परन्तु उसे कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जिसने भोजन न किया हो। वह एक कुम्हार के घर गई जिसका लड़का बीमार था । उसे मालूम हुआ कि "उसके यहाँ तीन दिन से किसी ने भोजन नहीं किया है।" रानी ने अपने भाई की कथा सुनने के लिए कुम्हार से कहा, वह तैयार हो गया।
राजा ने जाकर बृहस्पतिवार की कथा कही जिसको सुनकर उसका लड़का ठीक हो गया। अब तो राजा की प्रशंसा होने लगी। एक दिन राजा ने अपनी बहन से कहा- "हे बहन। मैं अपने घर जाऊँगा, तुम भी तैयार हो जाओ।" राजा की बहन ने अपनी सास से अपने भाई के साथ जाने की आज्ञा माँगी । सास बोली- "चली जा, परन्तु अपने लड़कों को मत ले जाना, क्योंकि तेरे भाई को कोई सन्तान नहीं होती है।"
बहन ने अपने भाई से कहा- "हे भइया ! मैं तो चलूँगी परन्तु कोई बालक नहीं जाएगा।" राजा ने कहा- "जब कोई बालक नहीं चलेगा, तब तुम जाकर ही क्या करोगी ?" दुःखी मन से राजा अपने नगर को लौट आया। राजा ने अपनी रानी से कहा- "हम निःसंतान हैं, इसलिए कोई हमारे घर आना पसन्द नहीं करता।" इतना कह वह बिना भोजन आदि किए शय्या पर लेट गया।
रानी बोली- "हे प्रभो ! बृहस्पतिदेव ने हमें सब कुछ दिया है, वे हमें सन्तान भी अवश्य देंगे।" उसी रात बृहस्पतिदेव ने राजा को स्वप्न में कहा- "हे राजा उठ ! सभी सोच त्याग दे, तेरी रानी गर्भवती है।" राजा को यह जानकर बड़ी खुशी हुई। नवें महीने रानी के गर्भ से एक सुन्दर पुत्र पैदा हुआ। जब राजा की बहन ने यह शुभ समाचार सुना तो वह बहुत खुश हुई तथा बधाई लेकर अपने भाई के यहाँ आई। तभी रानी ने कहा- "घोड़ा चढ़कर नहीं आई, गधा बड़ी आई।" राजा की बहन बोली- "भाई ! मैं इस प्रकार न कहती तो तुम्हें औलाद कैसे मिलती ?"
बृहस्पतिदेव ऐसे ही हैं, जिसके मन में जो कामनाएँ रहती हैं, सभी को पूर्ण करते हैं। जो सद्भावनापूर्वक बृहस्पतिवार का व्रत करता है एवं पढ़ता है अथवा सुनता है और दूसरों को सुनाता है. बृहस्पतिदेव उसकी सभी मनोकामना पूर्ण करते हैं। बृहस्पतिदेव उनकी सदैव रक्षा करते हैं। जो संसार में सद्भावना व सच्चे हृदय से बृहस्पतिदेव का पूजन करते हैं उनकी सभी मनोकामनाएँ उसी प्रकार पूर्ण होती हैं जैसे रानी और राजा ने बृहस्पतिदेव की कथा का गुणगान किया, उनकी सभी इच्छाएँ बृहस्पतिदेव ने पूर्ण की। मनुष्य को हृदय से उनका मनन करते हुए जयकार करना चाहिए।
॥ इति बृहस्पतिवार व्रत कथा ॥
श्री बृहस्पति देव की आरती
जय बृहस्पति देवा, ॐ जय बृहस्पति देवा ।
छिन छिन भोग लगाऊँ, कदली फल मेवा ॥
ॐ जय बृहस्पति देवा, जय बृहस्पति देवा ॥
तुम पूरण परमात्मा, तुम अन्तर्यामी ।
जगतपिता जगदीश्वर, तुम सबके स्वामी ॥
ॐ जय बृहस्पति देवा, जय बृहस्पति देवा ॥
चरणामृत निज निर्मल, सब पातक हर्ता ।
सकल मनोरथ दायक, कृपा करो भर्ता ॥
ॐ जय बृहस्पति देवा, जय बृहस्पति देवा ॥
तन, मन, धन अर्पण कर, जन शरण पड़े ।
प्रभु प्रकट तब होकर, आकर द्वार खड़े ॥
ॐ जय बृहस्पति देवा, जय बृहस्पति देवा ॥
दीनदयाल दयानिधि, भक्तन हितकारी ।
पाप दोष सब हर्ता, भव बंधन हारी ॥
ॐ जय बृहस्पति देवा, जय बृहस्पति देवा ॥
सकल मनोरथ दायक, सब संशय हारो ।
विषय विकार मिटाओ, संतन सुखकारी ॥
ॐ जय बृहस्पति देवा, जय बृहस्पति देवा ॥
जो कोई आरती तेरी, प्रेम सहित गावे ।
जेठानन्द आनन्दकर, सो निश्चय पावे ॥
ॐ जय बृहस्पति देवा, जय बृहस्पति देवा ॥
सब बोलो विष्णु भगवान की जय ।
बोलो बृहस्पति देव भगवान की जय ॥