हिंदू पंचांग के अनुसार ग्यारहवीं तिथि को एकादशी कहते हैं। एक महीने में दो पक्ष होने के कारण दो एकादशी होती हैं, एक शुक्ल पक्ष मे तथा दूसरी कृष्ण पक्ष मे। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवउठनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी से भगवान विष्णु चार महीने के योग निद्रा से जागते हैं। इसलिए इस दिन देवउठनी एकादशी का पर्व मनाया जाता है।
इस व्रत के करने से सौ राजसूय यज्ञों का फल प्राप्त होना है। इस दिन तीर्थ में स्नान तथा विष्णु पूजन का विशेष महत्त्व है। गंगा, प्रयाग, हरिद्वार, बनारस, मथुरा आदि तीर्थ में स्नान करें, दानादि करें। दान करने से इसका महत्त्व हजारों गुना बढ़ जाता है।
देवउठनी एकादशी व्रत विधि
देवउठनी एकादशी के दिन ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान व ध्यान से निवृत होकर स्वच्छ और पीले रंग के वस्त्र पहनें। घर में गंगाजल छिड़कें। भगवान विष्णु को ध्यान करते हुए हाथ में अक्षत लेकर व्रत का संकल्प लें। घर या मंदिर में गन्ने का मंडप बनायें। भगवान विष्णु के चरणों की आकृति बनाएं। लक्ष्मीनारायण के शालिग्राम स्वरूप की स्थापना कर पूजा अर्चना करें।
कलश और ओखली के पास विशेष रूप से आंवला, सिंघाड़े, मौसमी फल और गन्ने से भोग लगाएं। शंख, घंटा-घड़ियाल आदि बजाकर मंत्र बोलते हुए भगवान विष्णु को जगाएं, शुद्धजल और पंचामृत से भगवान विष्णु का अभिषेक करें। अबीर, गुलाल, चंदन, अक्षत, फूल, तुलसी और अन्य पूजा सामग्री चढ़ाएं। घी का दीपक जलाएं, धूप दिखाएं, फल और मिठाई का भोग लगाएं, आरती करें और प्रसाद बांटें। विष्णु पुराण का पाठ करे और एकादशी व्रत कथा का पाठ करे।
देवउठनी एकादशी का महत्त्व:
धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान मैंने कार्तिक कृष्ण एकादशी अर्थात रमा एकादशी का सविस्तार वर्णन सुना। अब आप कृपा करके मुझे कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी के विषय में भी बतलाइये। इस एकादशी का क्या नाम है तथा इसके व्रत का क्या विधान है? इसकी विधि क्या है? इसका व्रत करने से किस फल की प्राप्ति होती है? कृपया यह सब विधानपूर्वक कहिए।
भगवान श्रीकृष्ण बोले कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष मे तुलसी विवाह के दिन आने वाली एकादशी को देवउठनी एकादशी, देवोत्थान एकादशी, हरि प्रबोधिनी एकादशी या देवउठनी ग्यारस के नाम से भी जाना जाता है। यह बड़े-बड़े पापों का नाश करने वाली है, इसका माहात्म्य मैं तुमसे कहता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो।
देवउठनी एकादशी व्रत कथा
एक राजा के राज्य में सभी लोग एकादशी का व्रत रखते थे। प्रजा तथा नौकर-चाकरों से लेकर पशुओं तक को एकादशी के दिन अन्न नहीं दिया जाता था। एक दिन किसी दूसरे राज्य का एक व्यक्ति राजा के पास आकर बोला महाराज कृपा करके मुझे नौकरी पर रख लें। तब राजा ने उसके सामने एक शर्त रखी कि ठीक है, रख लेते हैं। किन्तु रोज तो तुम्हें खाने को सब कुछ मिलेगा, पर एकादशी को अन्न नहीं मिलेगा।
उस व्यक्ति ने राजा की शर्त मांग ली और उसे नौकरी पर रख लिया गया। अगले महीने एकादशी व्रत था। उस दिन उसे अन्न नहीं मिला। उसे फलाहार की सामग्री दी गई। वह राजदरबार में पहुंचा और राजा से कहने लगा कि फलाहार से उसका पेट नहीं भरेगा। उसे अन्न चाहिए। यदि अन्न नहीं खाएगा तो उसके प्राण निकल जाएंगे। वह राजा के सामने गिड़गिड़ाने लगा।
राजा ने उस व्यक्ति को नौकरी की शर्त याद दिलाई। फिर भी वह राजा से अन्न की मांग करता रहा। उसकी स्थिति को देखकर राजा ने उसे अन्न देने का आदेश दे दिया। उसे आटा, चावल और दाल मिल गया। वह पास स्थित एक नदी के तट पर पहुंचा और सबसे पहले स्नान किया। फिर भोजन तैयार करने लगा। जब खाना बन गया तो उसने भगवान से प्रार्थना की कि भोजन तैयार है, आप भोजन ग्रहण करें।
उसकी प्रार्थना सुनकर पीताम्बर धारण किए भगवान विष्णु अपने चतुर्भुज स्वरूप में प्रकट हुए। उसने प्रभु के लिए भोजन परोसा। भगवान विष्णु अपने उस भक्त के साथ भोजन करने लगे। भोजन के बाद भगवान अंतर्धान हो गए और वह व्यक्ति अपने काम पर चला गया। जब अगली एकादशी आई तो उसने राजा से कहा कि उसे दोगुना अन्न दिया जाए। पहली एकादशी पर वह भूखा ही रहा, राजा ने कारण पूछा तो उसने बताया कि हमारे साथ भगवान भी खाते हैं। इसीलिए हम दोनों के लिए ये सामान पूरा नहीं होता।
यह सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह बोला मैं नहीं मान सकता कि भगवान तुम्हारे साथ खाते हैं। मैं तो इतना व्रत रखता हूँ, पूजा करता हूँ, पर भगवान ने मुझे कभी दर्शन नहीं दिए। राजा की बात सुनकर वह बोला महाराज! यदि विश्वास न हो तो साथ चलकर देख लें। राजा एक पेड़ के पीछे छिपकर बैठ गया। उस व्यक्ति ने भोजन बनाया तथा भगवान को शाम तक पुकारता रहा, परंतु भगवान न आए। अंत में उसने कहा हे भगवान! यदि आप नहीं आए तो मैं नदी में कूदकर प्राण त्याग दूंगा।
लेकिन भगवान नहीं आए, तब वह प्राण त्यागने के उद्देश्य से नदी की तरफ बढ़ा। प्राण त्यागने का उसका दृढ़ इरादा जान शीघ्र ही भगवान ने प्रकट होकर उसे रोक लिया और साथ बैठकर भोजन करने लगे। खा-पीकर वे उसे अपने विमान में बिठाकर अपने धाम ले गए। यह देख राजा ने सोचा कि व्रत-उपवास से तब तक कोई फायदा नहीं होता, जब तक मन शुद्ध न हो। इससे राजा को ज्ञान मिला। वह भी मन से व्रत-उपवास करने लगा और अंत में स्वर्ग को प्राप्त हुआ।
एक राजा था, उसके राज्य में प्रजा सुखी थी। एकादशी को कोई भी अन्न नहीं बेचता था। सभी फलाहार करते थे। एक बार भगवान ने राजा की परीक्षा लेनी चाही। भगवान ने एक सुंदरी का रूप धारण किया तथा सड़क पर बैठ गए। तभी राजा उधर से निकला और सुंदरी को देख चकित रह गया। उसने पूछा हे सुंदरी! तुम कौन हो और इस तरह यहाँ क्यों बैठी हो?
तब सुंदर स्त्री बने भगवान बोले मैं निराश्रिता हूँ। नगर में मेरा कोई जान पहचान का नहीं है, किससे सहायता मांगू? राजा उसके रूप पर मोहित हो गया था। राजा बोला तुम मेरे महल में चलकर मेरी रानी बनकर रहो। सुंदरी बोली मैं तुम्हारी बात मानूंगी, पर तुम्हें राज्य का अधिकार मुझे सौंपना होगा। राज्य पर मेरा पूर्ण अधिकार होगा। मैं जो भी बनाऊंगी, तुम्हें खाना होगा।
राजा उसके रूप पर मोहित था, अतः उसकी सभी शर्तें स्वीकार कर लीं। अगले दिन एकादशी थी। रानी ने हुक्म दिया कि बाजारों में अन्य दिनों की तरह अन्न बेचा जाए। उसने घर में मांस-मछली आदि पकवाए तथा परोस कर राजा से खाने के लिए कहा। यह देखकर राजा बोला रानी! आज एकादशी है। मैं तो केवल फलाहार ही करूंगा।
तब रानी ने शर्त की याद दिलाई और बोली या तो खाना खाओ, नहीं तो मैं बड़े राजकुमार का सिर काट दूंगी। राजा ने अपनी स्थिति बड़ी रानी से कही तो बड़ी रानी बोली महाराज! धर्म न छोड़ें, बड़े राजकुमार का सिर दे दें। पुत्र तो फिर मिल जाएगा, पर धर्म नहीं मिलेगा। इसी दौरान बड़ा राजकुमार खेलकर आ गया। माँ की आंखों में आंसू देखकर वह रोने का कारण पूछने लगा तो माँ ने उसे सारी वस्तुस्थिति बता दी। तब वह बोला मैं सिर देने के लिए तैयार हूँ। पिताजी के धर्म की रक्षा होगी, जरूर होगी।
राजा दुःखी मन से राजकुमार का सिर देने को तैयार हुआ तो रानी के रूप से भगवान विष्णु ने प्रकट होकर असली बात बताई राजन! तुम इस कठिन परीक्षा में पास हुए। भगवान ने प्रसन्न मन से राजा से वर मांगने को कहा तो राजा बोला आपका दिया सब कुछ है। हमारा उद्धार करें। राजा की प्रार्थना श्रीहरि ने स्वीकार की और वह मृत्यु के बाद बैंकुठ लोक को चला गया।